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९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०३ समय बहुधा जिस कटिबन्ध का उपयोग होता था, वह बस्ती में बसने के बाद निरन्तर होने लगा। धीरे-धीरे कटि-वस्त्र का भी आकार-प्रकार बदलता गया। पहले मात्र शरीर का अगला गुह्य अंग ही ढंकने का विशेष ख्याल रहता था, पर बाद में सम्पूर्ण नग्नता ढाँक लेने की जरूरत समझी गयी और उसके लिये वस्त्र का आकार-प्रकार भी कुछ बदलना पड़ा। फलतः उसका नाम 'कटिबन्ध' मिटकर चोलपट्टक (चुल्लपट्ट-छोटा वस्त्र) पड़ा। इस प्रकार स्थविरकल्पियों में जो पहले ऐच्छिक नग्नता का प्रचार था, उसका धीरे-धीरे अन्त हो गया। आर्य महागिरि के समय से जिनकल्प की तुलना के नाम से कतिपय साधुओं ने जो नग्न रहने की परम्परा चालू की थी, वह उस समय के बहुत पहले ही बंद हो चुकी थी।" (श्र.भ.म./ पृ.२९२)।
मुनि श्री कल्याणविजय जी ने कहा है कि आर्य महागिरि के शिष्य अपने द्वारा अंगीकृत अचेलत्व का समर्थन आचारांग के अचेलत्व-प्रतिपादक उल्लेखों से करते थे। उनका यह कथन उचित प्रतीत होता है, क्योंकि आचारांग में भगवान् महावीरप्रणीत अचेलत्व का ही उल्लेख है, जिसका आचरण श्वेताम्बरपरम्परा ने तो असंभव मानकर त्याग दिया था, किन्तु दिगम्बरपरम्परा में प्रवर्तमान था। अतः आर्य महागिरि को उसके आचरण की प्रत्यक्ष प्रेरणा दिगम्बर साधुओं से ही प्राप्त हो सकती थी। इसलिए यह मानना अत्यन्त युक्तिमत् है कि आर्य महागिरि श्वेताम्बरपरम्परा छोड़कर दिगम्बरपरम्परा में आ गये थे। अचेलत्व के अपनाये जाने पर उनका जो विरोध, उपेक्षा और तिरस्कार हुआ, उससे इस बात की पुष्टि होती है। ____ अतः आर्य महागिरि द्वारा अचेलत्व के अंगीकार किये जाने से यह सिद्ध नहीं होता कि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् उदित हुए सचेलसंघ में वैकल्पिकरूप से अचेल-आचार प्रचलित था। ३.७. सचेल जिनकल्प कपोलकल्पित
श्वेताम्बरग्रन्थों में जिस सचेल जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा की गयी है, वह वस्तुतः था ही नहीं, वह कपोलकल्पित है। यह निम्नलिखित हेतुओं से सिद्ध होता है
१. भगवान् महावीर ने अचेलकधर्म का उपदेश दिया था, उसमें सचेल जिनकल्प या सचेल स्थविरकल्प के लिए स्थान नहीं हो सकता।
___२. श्वेताम्बर-आगम आचारांग एवं स्थानांग में मुनिधर्म के जिनकल्प और स्थविरकल्प भेद स्वीकार नहीं किये गये हैं।
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