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________________ अ०२/प्र०३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ९७ कहकर उनके सतीर्थ्य आर्य सुहस्ती जैसे युगप्रधान ने उनकी प्रशंसा की, पर आगे जाते यह प्रशंसा महँगी पड़ी। आर्य महागिरि तो वीर निर्वाण संवत् २६१ में स्वर्गवासी हो गये, पर उन्होंने जो जिनकल्प का अनुकरण किया था, उसकी प्रवृत्ति बंद नहीं हुई। उनके कतिपय शिष्यों ने भी उनका अनुसरण किया। परिणामस्वरूप आर्य महागिरि और सुहस्ती सूरि के शिष्यगण में अन्तर और मनमुटाव बढ़ने लगा और अन्त में खुल्लमखुल्ला नग्नचर्या और करपात्रवृत्ति का विरोध होने लगा। महागिरि की परम्परावाले, आचाराङ्ग के अचेलकत्व-प्रतिपादक उस उल्लेख से अपनी प्रवृत्ति का समर्थन करते थे, तब विरोधपक्षवाले उस उल्लेख का अर्थ जिनकल्पिकों का आचार होना बताते थे और स्थविरों के लिये वैसा करना निषिद्ध समझते थे। वे कहते थे कि 'बिलकुल वस्त्र न रखना और हाथ में भोजन करना जिनकल्पिकों का आचार है, स्थविरकल्पिकों को उसकी तुलना भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जब इस समय उत्तम संहनन न होने से जिनकल्प पाला ही नहीं जाता, तो उसका स्वाँग करने से क्या लाभ?' इस प्रकार दोनों की तना-तनी बढती जाती थी। सम्भवतः आर्य महागिरि के शिष्य रोहगप्त और प्रशिष्य आर्य गंग भी बाद में जिनकल्पिक पक्ष में मिल गये थे, जो कि तीन राशियों के और दो क्रियाओं के अनुभव की प्ररूपणा करने के अपराध में संघ से बहिष्कृत किये गये थे। यद्यपि रोहगुप्त, गांगेय वगैरह के मिल जाने के कारण वह पक्ष कुछ समय के लिए विशेष आग्रही बन गया था, पर अन्त में वह निर्बल हो गया। आर्य महागिरि के शिष्य-प्रशिष्यों के स्वर्गवास के बाद दो तीन पीढ़ी तक चल कर वह नामशेष रह गया। "इस प्रकार आचाराङ्ग के एक उल्लेखरूप बीज से सचेलकता-अचेलकता के मतभेद का अंकुर उत्पन्न हुआ और कुछ समय के बाद मुरझा गया। यद्यपि इस तनातनी का असर स्थायी नहीं रहा, तथापि इतना जरूर हुआ कि पिछले आचार्यों के मन में आर्य महागिरि के शिष्यों के संबंध में वह श्रद्धा नहीं रही, जो वैसे श्रुतधरों के ऊपर रहनी चाहिये थी। यही कारण है कि वालभी युगप्रधान पट्टावली में आज हम महागिरि के शिष्य बलिस्सह और स्वाति जैसे बहुश्रुतों का नाम नहीं पाते।" (अ.भ.म./ पृ. २८९-२९१)। आर्य महागिरि द्वारा प्रारंभ की गई यह जिनकल्पतुल्य नग्नपरम्परा आर्यरक्षित के समय (ई० पू०५ से ई० सन् ५७) से बहुत पहले ही बन्द हो चुकी थी, जैसा कि मुनि कल्याणविजय जी ने लिखा है "आर्यरक्षित के स्वर्गवास के बाद धीरे-धीरे साधुओं का निवास बस्तियों में होने लगा और इसके साथ ही नग्नता का भी अन्त होता गया। पहले बस्ती में जाते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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