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९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०३ ___ इस प्रकार उपर्युक्त गाथा से सूचित होता है कि श्वेताम्बरग्रन्थों में अचेल और सचेल, दोनों प्रकार के जिनकल्पों का उल्लेख मात्र किया गया है, उन्हें अंगीकार करने योग्य नहीं माना गया। ३.६. आर्य महागिरि का जिनकल्प दिगम्बरपरम्परा का जिनलिंग
यद्यपि श्वेताम्बरसाहित्य में ऐसा उल्लेख है कि जिनकल्प के व्युच्छिन्न होने के लगभग १२५ वर्ष बाद आर्य महागिरि ने पुनः जिनकल्प का आचरण आरंभ किया था, तथापि उसकी प्रेरणा श्वेताम्बरपरम्परा से प्राप्त नहीं हो सकती थी, क्योंकि श्वेताम्बरशास्त्रों में जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद से ही अचेलत्व के आचरण का विच्छेद मान लिया गया था और तभी से श्वेताम्बरपरम्परा में कोई अचेललिंगधारी मुनि नहीं हुआ। एकमात्र दिगम्बरपरम्परा में अचेललिंगधारी मुनियों का अस्तित्व था, अतः उससे ही आर्य महागिरि को अचेलकधर्म के अंगीकार की प्रेरणा मिल सकती थी। तात्पर्य यह कि आर्य महागिरि ने दिगम्बरपरम्परा (मूलसंघ) में आचरित अचेलत्व को ही अंगीकृत किया था, इसीलिए श्वेताम्बराचार्यों ने उसे जिनकल्प न कहकर जिनकल्पतुल्यवृत्ति या जिनकल्पाभास कहा है।६८ इसे श्वेताम्बर-परम्परा में मान्यता प्राप्त नहीं
__ इस पर प्रकाश डालते हुए मुनि कल्याणविजय जी लिखते हैं-"आचार्य स्थूलभद्र के शिष्यों में से सबसे बड़े आर्य महागिरि ने पिछले समय में अपना साधुगण आर्य सुहस्ती को सौंप दिया और आप वस्त्रपात्र का त्याग कर जिनकल्पिक साधुओं का सा आचार पालने लगे। यद्यपि वे स्वयं जिनकल्पिक होने का दावा नहीं करते थे, तथापि उनका झुकाव वस्तुतः जिनकल्प की ही तरफ था।
"उस समय के सब से बड़े श्रुतधर होने के कारण आर्य महागिरि के इस आचरण का किसी ने विरोध नहीं किया, बल्कि 'जिनकल्प की तुलना करनेवाले'
६८. क-महागिरिर्निजं गच्छमन्यदादात्सुहस्तिने।
विहर्तुं जिनकल्पेन त्वेकोऽभून्मनसा स्वयम्॥ ११/३॥ व्युच्छेदाज्जिनकल्पस्य गच्छनिश्रास्थितोऽपि हि। जिनकल्पार्हया वृत्त्या विजहार महागिरिः॥ ११/४॥ परिशिष्टपर्व। ख-गुरुगच्छधुराधारणधोरेया धरियलद्धिणो धारी।
चिरकाले वोलीणे महागिरि चिंतए ताण॥ २॥ गुरुतरनिज्जरकारी न संपयं जइ वि अत्थि जिणकप्पो। मह तह वि तदब्भासो पणासए पुव्वपावाई॥ ३॥
उपदेशमाला/ विशेषवृत्ति / पत्र ३६९।
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