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________________ अ०२/प्र०३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ९५ प्रथमसंहनन, पूर्ववेदित्व आदि।६७ जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद पंचम काल के प्रभाव से मनुष्यों में इन अतिशयों की उत्पत्ति का अभाव हो गया। अतः जिनकल्प धारण करने की योग्यता भी समाप्त हो गई। इसे प्रमाणित करने के लिए जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक-भाष्य में निम्नलिखित गाथा रचकर इसे तीर्थंकरवचन के रूप में निर्दिष्ट किया है मण-परमोहि-पुलाए-आहारग-खवग-उवसमे कप्पे। संजमतिय-केवलि-सिझणा य जंबुम्मि बुच्छिण्णा॥ २५९३॥ अनुवाद-"मनःपर्ययज्ञान, परमावधिज्ञान, पुलाकलब्धि, आहारकशरीर, क्षपकश्रेणी, उपशमश्रेणी, जिनकल्प, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात, ये तीन संयम, केवलित्व और सिद्धि (मोक्षप्राप्ति), इन दस गुणों को प्राप्त करने की मनुष्यों की शक्ति जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद व्युछिन्न हो गयी।" यह गाथा जिनभद्रगणी द्वारा ही रची गयी है, इसकी पुष्टि प्रवचनपरीक्षा (१/२/१५/ पृ.७९) के निम्नलिखित वचनों से होती है-"यदुक्तं भाष्यकारेण-मण-परमोहिपुलाए---।" (वि० २५९३)। अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग ४/ पृ.१४९०) में भी ऐसा ही उल्लेख है। श्री जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने बोटिक शिवभूति-सम्मत जिनलिंगरूप अचेल जिनकल्प को भी उक्त गाथा के द्वारा जम्बू-स्वामी के निर्वाण के बाद व्युच्छिन्न घोषित किया है। शिवभूति जिनेन्द्रगृहीत अचेललिंग को ही मोक्षार्थियों के लिए ग्राह्य बतलाता है और स्वयं भी उसे ही ग्रहण करने के लिए कृतसंकल्प होता है, तब गुरु आर्यकृष्ण कहते हैं___ "तं जइ जिणवयणाओ पवजसि, पवज्ज तो स छिन्नो ति।" (विशे. भा./ गा. २५९२)= "--- यदि जिनवचनादर्हदुपदेशाज्जिनकल्पं प्रतिपद्यसे त्वम्, ततस्तर्हि 'स जिनकल्पो व्यवच्छिन्नः' इतीदमपि प्रतिपद्यस्व।" (वही / हेम.वृत्ति.)। ___ अनुवाद-"यदि तुम जिनोपदेश का अनुसरण करते हुए जिनकल्प अंगीकार करना चाहते हो, तो जिनोपदेश का ही अनुसरण करते हुए यह भी स्वीकार करो कि उसका व्युच्छेद हो गया है।" ___उक्त गाथा से 'आचारांग' और 'स्थानांग' में उपदिष्ट अचेलत्व भी व्युच्छिन्न सिद्ध हो जाता है। उसे टीकाकार शीलांकाचार्य ने जिनकल्प नाम दे भी दिया है। (देखिये, आगे शीर्षक ३.८)। १७. उत्तमधिइ-संघयणा पुव्वविदोऽतिसइणो सयाकालं। जिणकप्पिया वि कप्पं कयपरिकम्मा पवज्जंति ॥ २५९१॥ विशेषावश्यकभाष्य। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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