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९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र० ३
अनुवाद - " वस्त्रपात्रादि तीर्थंकरों के संयम, योग आदि में उपकारी नहीं होते, किन्तु सुधर्मादि साधुओं के संयमादि में उपकारी होते हैं, अतः तीर्थंकरों के साथ साधुओं की समानता नहीं होती। "
श्वेताम्बर साध्वी श्री संघमित्रा जी के अनुसार 'भगवान् महावीर की परम्परा आचार्य सुधर्मा से प्रारंभ होती है । दिगम्बर - परम्परा में यह श्रेय गणधर इन्द्रभूति गौतम को है। सुधर्मा की जैनसंघ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन द्वादशाङ्गी की रचना है।" (जैनधर्म के प्रभावक आचार्य/पृ.७) । इससे संकेत मिलता है कि जब गौतम, सुधर्मा जैसे प्रथमसंहननधारी एवं द्वादशांगधर गणधरों ने आचारांगवर्णित अचेलत्व को अंगीकार नहीं किया, तब अन्यों के द्वारा किये जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बरपरम्परा में आचारांगवर्णित अचेलत्व का किसी भी मुनि के द्वारा आचरण नहीं किया गया। इसका कारण अत्यन्त तर्कसंगत था। भले ही आचारांग में अचेलत्व को श्रेष्ठ कहा गया हो (देखिए, तृतीय अध्याय), किन्तु जब सचेलत्व को भी मुक्ति का मार्ग बतलाया गया हो, तब अचेलत्व की श्रेष्ठता तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती । सरल और सुखकर मार्ग से कार्य की सिद्धि संभव होने पर कठिन और क्लेशकारक मार्ग को अपनाना औचित्यपूर्ण (तर्कसंगत ) सिद्ध नहीं होता। वह मानवबुद्धि और स्वभाव के विपरीत है । अतः आचारांग में भगवान् महावीर के अचेलकधर्म को स्थान देकर भी सलत्व का विकल्प साथ में रख देने से वह अनुपयोगी और अग्राह्य बन गया । इसलिए वह सचेलमुक्ति माननेवालों में कभी व्यवहृत नहीं हुआ। आचारांग में उसे वैकल्पिकरूप से स्थान दिये जाने के दो महत्त्वपूर्ण कारण थे - १. लोक में यह सुप्रसिद्ध था कि तीर्थंकर महावीर ने मोक्ष के लिए अचेलत्व को अंगीकार किया था और मोक्षार्थियों को भी उसी के अंगीकरण का उपदेश दिया था, इसलिए अचेलत्व को अमान्य करना संभव नहीं था, तथा २. अचेलत्व को आगमों में स्थान देने से तीर्थंकर महावीर के अनुयायी होने का प्रमाणपत्र मिलना भी संभव था। इन दो कारणों से वर्तमान आचारांग आदि आगमों में अचेलत्व के उपदेश को स्थान दिया गया, किन्तु वैकल्पिक सचेलमार्ग का समावेश कर तथा अचेलत्व (जिनकल्प) के विच्छेद की घोषणा कर उसे निष्प्राण एवं निरर्थक बना दिया गया। ३.५. जिनकल्प के व्युच्छेद की घोषणा
इस प्रकार श्वेताम्बर - सम्मत जिनकल्प प्रथम तो अचेल था ही नहीं, दूसरे, श्वेताम्बरग्रन्थों में कहा गया है कि अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् वह व्युच्छिन्न हो गया, अर्थात् उसकी प्रवृत्ति बन्द हो गई, क्योंकि उसे धारण करने के लिए अनेक अतिशयों (विशेष योग्यताओं) की आवश्यकता होती है, जैसे उत्तमधृति,
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