________________
अ० २ / प्र० ३
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ९३ प्रवचनपरीक्षाकार ने वस्त्रपात्र - लब्धिमान् जिनकल्पिकों को मुखवस्त्रिका - रजोहरणधारी होते हुए भी मुख्यावृत्त्या अचेल बतलाया है । ६६
इसका कारण यह है कि वस्त्रलब्धिमान् जिनकल्पी साधुओं की नग्नता अलौकिक वस्त्र से ही आच्छादित रहती थी, अतः उन्हें लौकिक वस्त्र धारण करना आवश्यक नहीं होता था। मात्र इस बहाने उन्हें अचेल या नग्न कहा गया है। किन्तु उनका शरीर यथाजातरूप से अचेल नहीं होता था, अतः वे यथार्थतः नहीं, अपितु नाममात्र से अचेल होते थे। इस प्रकार शब्दछल के द्वारा श्वेताम्बरपरम्परा में अचेल या नग्न साधुवर्ग का अस्तित्व सिद्ध करने की चेष्टा की गई है।
इन तथ्यों से सिद्ध है कि श्वेताम्बरमतोक्त जिनकल्प और स्थविरकल्प दोनों सल हैं।
३.४. आचारांगवर्णित अचेलत्व अव्यवहृत
आचारांग में कहा गया है कि यदि शीतादि - परीषह सहन करने की शक्ति हो और लज्जा को भी जीत लिया जाय, तो सर्वथा अचेल रहना चाहिए अर्थात् न कटिवस्त्र धारण करना चाहिए, न कल्प ( चादर या कम्बल) । ( देखिए, अध्याय ३/प्रकरण १ / शीर्षक ६, ७) । अचेलत्व का यह स्वरूप दिगम्बर- परम्परा - सम्मत है, जिसे आचारांग में स्वीकृति प्रदान कर भगवान् महावीर की मूल परम्परा सूचित की गयी है, किन्तु श्वेताम्बरसंघ में वह आचरण का अंग कभी नहीं बना । वृत्तिकार शीलाङ्काचार्य ने इसे जिनकल्पिकों का आचारण कहकर व्युच्छिन्न घोषित किया भी है । श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी लिखते हैं- "गणिपिटक के पाँचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) में भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतमस्वामी के वस्त्र, पात्र, मुखवस्त्रिका आदि धर्मोपकरणों का स्पष्ट उल्लेख विद्यमान है। " (जै.ध. मौ.इ./ भा.३/पृ.२०६) ।
इसकी पुष्टि 'प्रवचनपरीक्षा' की वृत्ति के निम्नलिखित वाक्य से होती है
"अर्हतः संयमयोगेषूपकारी वस्त्रपात्रादिर्न भवति । इतरेषां सुधर्मादिसाधूनां भवति । तेन तीर्थकृता सह साम्यं न साधोरिति । " ( प्रव. परी / वृत्ति / १ / २ /१०/ पृ.७८) ।
६६. “इहाचेलक्यं द्विधा मुख्यमौपचारिकं च । तत्र मुख्यं तीर्थकृतां कस्यचिज्जिनकल्पिकस्य च। --- जिनकल्पिकस्य तु कस्यचित्तथाविधलब्धिमतो जिनकल्पप्रतिपत्तेः रजोहरणमुखवस्त्रिकातिरिक्तोप-करणाभावात् सर्वथा वस्त्राभावादेवाचेलकत्वं मुख्यमेव। उक्तशेषसाधूनां तूपचरितं यतस्ते परिशुद्धजीर्णादिवस्त्रं मूर्च्छादिराहित्येन परिभुञ्जानाः सत्यपि वस्त्रेऽचेला एव भण्यन्ते ।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १ / २ / ६ / पृ.७५ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org