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९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०३ उनके शुभप्रभामंडल से आच्छादित रहता है। (देखिए, पंचम अध्याय : पुरातत्त्व में दिगम्बरपरम्परा के प्रमाण)।
इस प्रकार श्वेताम्बर जिनकल्पी और स्थविरकल्पी साधुओं में अन्तर मात्र यह माना गया है कि जिनकल्पी ऋद्धिलब्ध-देहावरणधारी या कटिवस्त्ररहित-वस्त्रपात्रधारी होते थे और स्थविरकल्पी कटिवस्त्रसहित-वस्त्रपात्रधारी।
३.३.३. श्वेताम्बर-जिनकल्पिकों का नग्नत्व औचित्यविहीन-जिनकल्पिकों का नग्न रहना औचित्यविहीन भी था, क्योंकि जब वस्त्रधारण करने से भी मुक्ति हो सकती है, तब नग्न रहने का क्या औचित्य है? यह तो निष्प्रयोजन कष्ट सहना है। श्वेताम्बरमुनि उपाध्याय धर्मसागर जी ने यह बात स्वयं स्वीकार की है। वे बोटिक शिवभूति के द्वारा स्त्रीमुक्ति का निषेध किये जाने पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं
___“अथ यदा शिवभूतिना नग्नभावोऽभ्युपगतस्तदानीमुतरानाम्न्याः स्वभगिन्या वस्त्र-परिधानमनुज्ञातम्। एवं च सति यदि स्त्रीणां मुक्तिं प्ररूपयति तदा सवस्त्रनिर्वस्त्रयोरविशेषापत्त्या स्वकीयनग्नभावस्य केवलं क्लेशतैवापद्यतेति विचिन्त्य स्त्रीणां मुक्तिर्निषिद्धा।" (प्रव.परी./ वृत्ति/१/२/१८/ पृ.८२)।
अनुवाद-"जिस समय शिवभूति ने नग्नता (दिगम्बरवेश) स्वीकार की, उस समय उसने उत्तरा नाम की अपनी बहिन के लिए वस्त्र पहनने की आज्ञा दी। अब यदि वह स्त्रियों के लिए मुक्ति का प्ररूपण करता है, तो सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों को मुक्ति संभव हो जाने से स्वयं का नग्न रहना केवल क्लेश का ही कारण सिद्ध होगा, ऐसा सोचकर उसने स्त्रियों के लिए मुक्ति का निषेध कर दिया।
इस तरह जिनकल्पिकों के नग्न रहने का औचित्य भी घटित नहीं होता। अतः उनका शरीर लौकिक वस्त्र या अलौकिक वस्त्र से आच्छादित ही बतलाया गया है।
३.३.४. वस्त्रलब्धिमान् जिनकल्पिक नाममात्र से अचेल-हेमचन्द्रसूरि ने विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार सभी जिनकल्पिक साधुओं को सचेल बतलाया है। उन्होंने तीर्थंकरों को भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण धारण न करते हुए भी६४ कन्धे पर देवदूष्य वस्त्र डालकर प्रव्रजित होने के कारण सचेल ही कहा है।५ किन्तु ६४. “येन कारणेन तीर्थकृतां वस्त्राद्यनुपयोगः तेन कारणेनार्हन् स्वलिङ्गपरलिङ्गगृहस्थलिङ्गै रहितः
स्यात्। तत्र स्वलिङ्गं रजोहरणादि, परलिङ्गमन्यतीर्थिकलिङ्गं पिच्छिकादिकं, गृहस्थलिङ्गं तु
प्रतीतमेव।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १/२/११/पृ.७८ । ६५. "यद्यपि तत्संयमस्यानुपकारि वस्त्रं, तथापि सवस्त्रमेव तीर्थं 'सवस्त्रा एव साधवस्तीर्थे चिरं
भविष्यन्ति' इत्यस्यार्थस्योपदेशनं ज्ञापनं तदर्थं गृहीतैकवस्त्राः सर्वेऽपि तीर्थकृतोऽभिनिष्क्रामन्तीति। तस्मिंश्च वस्त्रे च्युते क्वापि पतितेऽचेलका वस्त्ररहितास्ते भविन्त, न पुनः सर्वदा।" हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५८१-८३।
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