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________________ अ०२/प्र०३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ९१ उसके कृत्य को तो साभिप्राय ही मानना होगा। और तब प्रवचनपरीक्षाकार का भण्डिकचेष्टा का आरोप उस पर शतशः चरितार्थ होगा। अतः यह कल्पना नहीं की जा सकती कि जिनकल्पी साधु कल्पधारण करते हुए भी गुह्यांग को खुला रखते होंगे। वे निश्चय ही कल्प को शरीर पर इस प्रकार डालते होंगे, जिससे गुह्यांग छिप जाता होगा। प्रवचनपरीक्षाकार ने भी कहा है कि जिनकल्पियों के कल्प रखने का उद्देश्य शीतादि निवारण के अतिरिक्त नग्नता को छिपाना भी है, जिससे जिनशासन का उपहास एवं स्त्रियों में कामविकार की उत्पत्ति न हो सके। यह उनके पूर्वोक्त निम्नलिखितः वचनों से प्रकट है "एवमुक्तप्रकारेण जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्चेत्युभयेऽपि प्रागुक्तगुणहेतवे वस्त्राणि बिभ्रति। अन्यथा प्रवचनखिंसादयः स्त्रीजनस्यात्मनश्च मोहोदयादयो बहवो दोषाः स्युः।" (प्रव.परी./वृत्ति/१/२/३१ / पृ.९५)। प्रवचनपरीक्षाकार ने तो दिगम्बरों पर आक्षेप करते हुए यहाँ तक कहा है कि भले ही शीतादिपरीषह सहन करने के लिए वस्त्र त्याग दिया जाय, किन्तु अत्यन्त अवाच्य (नाम न लेने योग्य) अवयव पुरुषचिह्न को छिपाने के लिए तो वस्त्र-धारण करना ही चाहिए "अथ शीतादिसहनार्थं वस्त्रं परिहियते इति चेत् परिहियतां नाम तदर्थं, परमावाच्यावयवगोपननिमित्तं तु धर्त्तव्यमेव।" (प्रव.परी/वृत्ति/१/२/३१/पृ.९५) इससे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जिनकल्पिक साधुओं के कल्प धारण करने का प्रयोजन मुख्यतः गुह्यांग को छिपाना ही था। इस प्रकार जब जिनकल्पी भी सचेल और अनग्न होते थे, तब यह दावा मिथ्या सिद्ध हो जाता है कि जिनकल्प और स्थविरकल्पवाली निर्ग्रन्थपरम्परा सचेलाचेल थी, वस्तुतः वह केवल सचेल थी। ३.३.२. श्वेताम्बर-जिनकल्पिकों का नग्न रहना असंभव-'प्रवचनपरीक्षा' के उपर्युक्त वचनों से सिद्ध है कि श्वेताम्बरमत में नग्नता को अश्लील तथा स्त्रियों में कामविकारजनक माना गया है। इसलिए श्वेताम्बर जिनकल्पिकों का नग्न रहना संभव नहीं था। यही कारण है कि वस्त्रलब्धियुक्त जिनकल्पिकों की नग्नता को वस्त्रलब्धि से आच्छादित माना गया है। तथा जो वस्त्रलब्धिरहित हैं उनके लिए एक से लेकर तीन तक कल्प रखने का विधान किया गया है, ताकि उनकी नग्नता कल्प से आच्छादित रहे। यहाँ तक कि तीर्थंकरों के भी गुह्यांग का प्रकट होना अश्लील एवं कामविकारोत्पादक माना गया है, इसीलिए श्वेताम्बरग्रंथों में यह कल्पना की गयी है कि उनका गुह्यांग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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