________________
९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ० २ / प्र० ३
लिए वस्त्र धारण करते हैं। अन्यथा जैनसंघ की निन्दा, स्त्रियों तथा स्वयं में कामविकार की उत्पत्ति आदि अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं । "
विशेषावश्यकभाष्य के वृत्तिकार श्री हेमचन्द्रसूरि (११६४ ई०) ने भी जिनकल्पियों के लब्धिमान् और अलब्धिमान् दो भेद बतलाये हैं और कहा है कि यदि पात्रलब्धिमान् जिनकल्पिक भी पात्र रखता है, तो वह अलब्धिमान् रुग्ण-वृद्ध जिनकल्पिक को पात्र में आहार लाकर दे सकता है। इससे दयाधर्म का पालन होता है और परस्पर समता एवं स्वास्थ्य भी तुल्य रहता है
" एवं च पात्रे परिग्रहे सति लब्धिमतामलब्धिमतां च शक्तानामशक्तानां च, वास्तव्यानां प्राघूर्णकानां च सर्वेषामपि साधूनां परस्परं समता स्वास्थ्यं च तुल्यता भवति । पात्रे हि सति लब्धिमान् भक्तपानादिकं समानीयालब्धिमते ददाति ।" (हेम. वृत्ति / विशे. भा. / २५७९) ।
इस प्रकार श्वेताम्बरसाहित्य में जिन साधुओं को जिनकल्पिक कहा गया है, वे भी सचेल और अनग्न ही होते थे। जो जिनकल्पिक केवल मुखवस्त्रिका और ऊननिर्मित रजोहरण धारण करते थे, उनकी नग्नता वस्त्रलब्धि से आच्छादित हो जाती थी, अतः वे मुखवस्त्रिका और रजोहरण रखने के कारण सचेल भी होते थे और अनग्न भी । तथा जिन जिनकल्पिकों के पास वस्त्रलब्धि नहीं होती थी, वे एक, दो या तीन कल्प (चादर) रखते थे । उनमें से एक को भी कन्धे पर लटका लेने या ओढ़ लेने से गुह्यांग ढँक जाता था । इस प्रकार वे भी सचेल और अनग्न रहते थे। यह कल्पना नहीं की जा सकती कि वे चादर ओढ़ते हुए या कन्धे पर लटकाकार रखते हुए भी अपने गुह्यांग को खुला रखते होंगे, क्योंकि इससे यह सिद्ध होगा कि वे अपरिग्रह को धर्म नहीं मानते थे, अपितु गुह्यांग के प्रदर्शन को धर्म मानते थे, जो धर्म तो किसी भी प्रकार हो ही नहीं सकता था, एक अश्लील कृत्य ही हो सकता था । प्रवचनपरीक्षाकार ने दिगम्बरों की नग्नता को लक्ष्य करके इसे भण्डिकचेष्टा कहा है और वेश्याओं के ही समक्ष करना उचित बतलाया है, कुलस्त्रियों के समक्ष नहीं।६३
दिगम्बरमुनि तो शरीर पर एक धागा भी रखने को परिग्रह मानते हैं, इसलिए अपरिग्रहमहाव्रत के पालनार्थ वे सर्वथा अचेल रहते हैं । इस कारण उनका गुह्यांग अनभिप्रायपूर्वक खुला रहता है, किन्तु जो मुनि चादर रखते हुए भी उसे खुला रखे,
६३. “किं च नग्नस्य ते वेश्यादिजनोपान्त एवोपवेशनादिकं युक्तं, भण्डिकचेष्टायाः तत्रैव युक्तत्वात् न पुनः कुलस्त्रीमध्येऽवाच्यं दर्शयतस्तवावस्थानं युक्तं लोके तव तासां चातिनिन्दनीयत्वात् । " प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति १ / २ / ३१ / पृ.९५ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org