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अ०२/प्र०३
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ८९ "प्रच्छादक का अर्थ है कल्प, दो सूती और एक ऊनी, इस तरह उनकी संख्या तीन है। इस प्रकार उपकरणभेद से जिनकल्पी साधुओं के आठ भेद होते हैं, जैसा कि कहा गया है
"जिनकल्प में उपधि के आठ विकल्प होते हैं : दो, तीन, चार, पाँच, नौ, दस, ग्यारह और बारह। किसी जिनकल्पी के पास मुखपट्टिका और रजोहरण, केवल ये दो उपकरण होते हैं, किसी के पास इनके अतिरिक्त एक कल्प होने पर तीन उपकरण होते हैं। किसी के पास उनके साथ दो कल्प होने पर चार उपकरण हो जाते हैं। जिसके पास मुखपट्टिका और रजोहरण के अतिरिक्त तीन कल्प होते हैं, वह पाँच उपकरणोंवाला होता है। इन दो, तीन, चार और पाँच उपकरणवालों के साथ सात-सात प्रकार का पात्रनिर्योग होने पर जिनकल्पी साधु क्रमशः नौ, दस, ग्यारह और बारह उपकरणवाले हो जाते हैं। इस तरह उपकरणभेद से जिनकल्पी साधु आठ प्रकार के होते हैं, ऐसा पञ्चवस्तु में कहा गया है।
"इस प्रकार का जिनकल्प वर्तमान में व्युच्छिन्न हो गया है। जिस काल में उत्पन्न होने पर सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होती है, उसी काल में उत्पन्न होनेवाला जिनकल्प धारण कर सकता है, दूसरा नहीं। वर्तमानकाल ऐसा नहीं है, इसलिए इसमें जिनकल्प धारण करना संभव नहीं है। इस समय केवल स्थविरकल्प ही प्रवर्तमान है। उसे धारण करनेवाले के कम से कम चौदह उपकरण होते हैं। उनमें बारह तो वे ही हैं, जो जिनकल्पिकों के हैं। मात्रक (एक प्रकार का पात्र) और चोलपट्टक ये दो उनके अतिरिक्त उपकरण हैं। यही बात ‘पञ्चवस्तु' की 'एए चेव' इत्यादि गाथा में कही गई है।
"मात्रक एक ऐसा पात्रविशेष है, जिसमें सभी प्रकार के यतियों के योग्य वस्तु लायी जा सकती है। स्थविरकल्प में शीतादि न सह सकनेवाले बाल, वृद्ध, ग्लान आदि साधुओं के संयमनिर्वाह हेतु दुगुने अथवा उससे भी अधिक उपकरणों की अनुमति निशीथचूर्णि आदि आगमों में दी गई है। इस प्रकार जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक दोनों पूर्वोक्त गुणों (लोकमर्यादा का पालन, लज्जा तथा ब्रह्मचर्य की रक्षा, शीतातपदंशमशकजन्य पीड़ाओं के निरोध द्वारा सद्ध्यान की प्राप्ति, जैनसंघ की निन्दा का परिहार, स्त्रियों में कामविकारोत्पत्ति का निवारण एवं जीवहिंसा की निवृत्ति )६२ की सिद्धि के
६२. लोआणुवत्तिधम्मो लज्जा तह बंभचेररक्खा य।
सीआतवदंस-मसगपीडारहिअस्स सज्झाणं ॥ ३०॥ पवयणखिंसा परवग्गमोहुदयवारणं च वत्थेहिं। तसथावराणजयणा पत्तेहिं तहेव विण्णेया॥ ३१॥ प्रवचनपरीक्षा/१/२/पृ.९१-९२।
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