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८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०३ प्राप्त होती है, किसी को वस्त्रविषयक और किसी को उभयविषयक। पात्रविषयक लब्धिवाले पाणिपात्री होते हैं। पाणिपात्र में ही आहारादि लाने पर उनसे किसी भी प्रकार की संयमविराधना नहीं होती, न ही जिनशासन का तिरस्कार होता है, प्रत्युत प्रभावना होती है। उस लब्धि का स्वरूप ऐसा है कि जिसे वह प्राप्त होती है, उसकी पाणि में हजारों घड़े जल अथवा समस्त सागर समा जाते हैं। पात्रलब्धिवाले वस्त्रधारण करते हैं, क्योंकि उनके पास वस्त्रलब्धि नहीं होती । वस्त्रों में अपने सामर्थ्यानुसार कोई एक कल्प (चादर), कोई दो कल्प और कोई तीन कल्प (दो चादर और एक कम्बल) रखता है, जिससे किसी के पास रजोहरण और मुखवस्त्रिका सहित तीन, किसी के पास चार और किसी के पास पाँच उपकरण हो जाते हैं। इसीप्रकार जो वस्त्र से आच्छादित न होने पर भी नग्न नहीं दिखते, वे वस्त्रलब्धियुक्त होते हैं, अर्थात् वस्त्र का कार्य करनेवाली लब्धि उनके पास होती है। वस्त्र का कार्य लब्धि से ही सम्पन्न हो जाने के कारण उन्हें वस्त्र की आवश्यकता नहीं होती, जैसे सूर्य से वस्तुएँ दिखाई देने पर किसी को दीपक की जरूरत नहीं होती। वस्त्रलब्धिवाले में शीतादि के सहन का सामर्थ्य भी आ जाता है, किन्तु उसे पात्र धारण करना पड़ता है, क्योंकि वह पात्रविषयकलब्धि से रहित होता है। वस्त्रलब्धियुक्त, किन्तु पात्रलब्धिरहित साधुओं के पास नौ ही उपकरण होते हैं, क्योंकि सात प्रकार का पात्र-परिकर उनमें से सभी के लिए अनिवार्य है। किन्तु जिनके पास वस्त्र और पात्र दोनों से सम्बन्धित लब्धियाँ होती हैं, वे न पात्र ग्रहण करते हैं, न वस्त्र, क्योंकि उनका दोनों से प्रयोजन नहीं होता। उनके वस्त्र और पात्र दोनों से होने वाले कार्य लब्धि से ही सिद्ध हो जाते हैं। उनके उपकरण दो ही होते हैं : रजोहरण और मुखवस्त्रिका।
___ "जो लब्धिमान् नहीं होते, उन्हें वस्त्रपात्रादि उपकरण धारण करना अनिवार्य है, जैसा कि २२६ पृष्ठोंवाली 'धर्मसंग्रहणीवृत्ति' में १९२वें पृष्ठ पर कहा गया है-"अतिशयरहित साधु के लिए वस्त्रपात्रादि के बिना चारित्र की साधना संभव नहीं है।" उनमें से सामर्थ्यानुसार कोई एक चादर रखता है, तो उसके दस उपकरण हो जाते हैं। जो दो चादर रखता है उसके ग्यारह उपकरण होते हैं और तीन चादर (दो सूती
और एक ऊनी) रखनेवाला बारह उपकरणों का धारक होता है। ऐसा ही निम्नलिखित गाथाओं में कहा गया है
"पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका (पात्रप्रमार्जनिका) पटल, रजस्त्राण और गुच्छक, यह पात्रनिर्योग है।" पात्रनिर्योग का अर्थ है पात्रपरिकर।
"इनके अतिरिक तीन प्रच्छादक (कल्प), रजोहरण और मुखपट्टिका इनको मिलाकर कुल बारह उपकरण जिनकल्पिकों के होते हैं।"
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