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________________ अ० २ / प्र०३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितंता का उद्घाटन / ८५ "दक्षिण की जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म थी, अतः अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थसंघ को कोई कठिनाई नहीं हुई, जब कि उत्तर के निर्ग्रन्थसंघ में कुछ पाश्र्वापत्यों के प्रभाव से और कुछ अतिशीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वस्त्र रखा जाने लगा।" ३.२. महावीर-प्रणीत जिनकल्प और स्थविरकल्प दोनों सर्वथा अचेल ___ अचेलकधर्म के प्रणेता होने के कारण तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदिष्ट जिनकल्प और स्थविरकल्प दोनों सर्वथा अचेल हैं। उनका स्वरूप दिगम्बरग्रन्थों में वर्णित है। वामदेवकृत भावसंग्रह में जिनकल्पी मुनियों के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है-"अब जिनकल्प नामक चारित्र का वर्णन किया जाता है, जिससे भव्यों को निश्चितरूप से मुक्तिवधू का संग प्राप्त होता है। जिनकल्पिक मुनि शुद्धसम्यग्दर्शनयुक्त, इन्द्रियकषायों के विजेता और एकादशांगश्रुत को एक अक्षर के समान जाननेवाले होते हैं। पैरों में काँटा लगने और आँखों में धूल जाने पर स्वयं अलग नहीं करते, दूसरों के अलग करने पर मौन रहते हैं। वे वज्रवृषभनाराच-संहननधारी होते हैं, सतत मौन धारण करते हैं और गुफा, पर्वत, वन या नदीतट पर रहते हैं। वर्षाकाल में मार्ग के जीवों से व्याप्त होने पर छह मास तक निःस्पृह और निराहार कायोत्सर्ग में स्थित रहते हैं। मोक्ष-साधन में उनकी निष्ठा होती है, रत्नत्रय से विभूषित होकर निःसंग धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। ये मुनि 'जिन' की तरह अनियतवासी होकर विचरते हैं, इस कारण आचार्यों ने इन्हें जिनकल्पिक कहा है।" (श्लोक २६३-२६९)। स्थविरकल्प के स्वरूप का वर्णन करते हुए प्राकृत-भावसंग्रहकार देवसेन कहते हैं-"पाँचों प्रकार के वस्त्रों का त्याग, आकिंचन्य, प्रतिलेखन, पंचमहाव्रत-पालन, नवधाभक्तिपूर्वक पाणितल में प्राप्त आहार को दिन में एक बार खड़े होकर ग्रहण करना, भिक्षा की याचना न करना, बाह्याभ्यन्तर तप का अभ्यास करना, षडावश्यक का पालन, भूमिशयन, केशलोच, पंचेन्द्रियरोध और जिनवरसदृश प्रतिरूप ग्रहण करना स्थविरकल्प के लक्षण हैं। हीनसंहनन और दुःषमकाल के प्रभाव से आजकल स्थविरकल्पस्थित साधु पुर, नगर और ग्रामवासी हो गये हैं। वे वह उपकरण भी ग्रहण करते हैं, जिससे चारित्र की हानि न हो। योग्य होने पर पुस्तकदान भी स्वीकार करते हैं। समुदाय में विहार, यथाशक्ति धर्मप्रभावना, भव्यजीवों को धर्मोपदेश, शिष्यों का पालन और ग्रहण स्थविरकल्पिकों का आचार है। यद्यपि संहनन तुच्छ, काल दुःषम और मन चपल है, तथापि धीरपुरुष उत्साहपूर्वक महाव्रतों का पालन करते हैं।" (श्र.भ. म./ पृ. २८८-२८९ से उद्धृत)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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