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८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
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कपोलकल्पित होने के शास्त्रीय प्रमाण
३.१. भगवान् महावीर का निर्ग्रन्थसंघ सर्वथा अचेलमार्गी
उत्तराध्ययनसूत्र के केशी - गौतम - संवाद में बतलाया गया है कि भगवान् महावीर ने अचेलकधर्म का उपदेश दिया था और भगवान् पार्श्वनाथ ने सचेलधर्म काअचेलगो य जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो ।
देसिदो वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ॥ २३/२९॥
श्री हरिभद्रसूरि ने तो अपने ग्रन्थ पञ्चाशक में महावीर के अतिरिक्त भगवान् ऋषभदेव को भी अचेलधर्म का ही प्रवर्तक (उपदेशक ) बतलाया है
अ०२ / प्र० ३
आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अचेलो य ॥ १२॥
प्रथम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ साधुओं के लिए जो दस प्रकार का कल्प ( आचार) निर्धारित किया गया है, उसमें आचेलक्य का निर्देश सर्वप्रथम किया गया है
आचेलक्कुद्देसिय- सेज्जायर - रायपिंड - किइकम्मे । वय - जेट्ठ-पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥
यह कल्पनिर्युक्ति की गाथा है । (देखिये, 'श्रमण भगवान् महावीर ' / पृ. ३३६ ) । जीतकल्पभाष्य की भी यह १९७२ वीं गाथा है । (जै. ध. या.स./ पृ.१३२) ।
तत्त्वार्थसूत्र में भी साधु के बाईस परीषहों में नाग्न्यपरीषह बताया गया है, जो साधु के लिए अचेललिंग धारण करने के उपदेश का सूचक है । शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषहों को जीतने का उपेदश भी अचेलत्व की अनिवार्यता का ज्ञापक है, क्योंकि वस्त्रधारी को ये परीषह संभव नहीं है। आचारांग में भी इसका समर्थन किया गया है । ( देखिये, आगे अध्याय ३ / प्रकरण १ / शीर्षक ६, ७, ९ ) ।
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इन प्रमाणों से सिद्ध है कि भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थसंघ को सचेलाचेलमार्गी कहना आगमविरुद्ध है अर्थात् कपोलकल्पित है ।
डॉ० सागरमल जी ने भी आगे चलकर स्वमत में परिवर्तन करते हुए अपने नवीन ग्रन्थ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा (पृ. २६) में भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थसंघ को अचेलमार्गी ही स्वीकार किया है। देखिए -
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