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________________ अ० २ / प्र० ३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ८३ डॉक्टर सा० ने इस उत्तरभारतीय सचेलाचेल निर्ग्रन्थसंघ को मूलधारा और अविभक्त परम्परा शब्दों से विशेषित करते हुए कहा है कि इसी मूलधारा या अविभक्त परम्परा से श्वेताम्बर और यापनीय संघों का जन्म हुआ था, अतः यह इन दोनों संघों की पूर्वज परम्परा है । (देखिये, इसी अध्याय के चतुर्थ प्रकरण का प्रथम अनुच्छेद)। इस आधार पर मैंने अभिव्यक्ति की सुविधा के लिये इस संघ या परम्परा को दो नामों से अभिहित किया है - १. उत्तरभारतीय - सचेलाचेल - निर्ग्रन्थसंघ या परम्परा और २. श्वेताम्बर - यापनीय- मातृपरम्परा । डॉक्टर सा० का कथन है कि आचारांगादि आगमग्रन्थ, उनकी नियुक्तियाँ, प्रकीर्णक तथा कर्मसाहित्य के ग्रन्थ भी इसी उत्तरभारतीय सचेलाचेल निर्ग्रन्थसंघ के हैं, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों को उत्तराधिकार में प्राप्त हुए थे । (जै. ध. या.स./पृ.६८)। डॉक्टर सा० ने जो सचेल श्रमणों के संघ को भी निर्ग्रन्थसंघ नाम से अभिहित किया है, उसके अनौचित्य का प्रतिपादन आगे षष्ठ प्रकरण में में किया जायेगा । यहाँ केवल इस मान्यता को कपोलकल्पित सिद्ध किया जा रहा है कि भगवान् महावीर ने सचेल और अचेल दोनों मार्गों से मोक्ष होने का उपदेश दिया था और उत्तरभारत में उन्हीं के समय से सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ विद्यमान था । २ उक्त कपोलकल्पना द्वारा अनेक प्रयोजनों की सिद्धि का प्रयास भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थसंघ को सचेलाचेल बतलाकर मान्य विद्वान् ने अपनी कपोलकल्पना द्वारा अनेक प्रयोजनों को सिद्ध करनेका प्रयास किया है। यथा— १. दिगम्बरपरम्परा को भगवान् महावीर की परम्परा से अलग सिद्ध करना । २. महावीर के तीर्थ को सचेलाचेल सिद्ध करना । ३. श्वेताम्बरों और यापनीयों को ही महावीर की परम्परा का उत्तराधिकारी ठहराना । ४. और इस प्रकार जो ग्रन्थ श्वेताम्बरों का नहीं है और स्पष्टतः यापनीयों का भी नहीं है, किन्तु जिसकी कुछ विषयवस्तु श्वेताम्बरग्रन्थों की विषयवस्तु से मिलतीजुलती है, उसे यदि वह यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति के पूर्व रचा गया है, तो उत्तरभारतीय सचेलाचेल परम्परा के आचार्यों द्वारा रचित सिद्ध करना और यदि उसके बाद रचा गया है, तो उस परम्परा के उत्तराधिकारी यापनीयसंघ के आचार्य द्वारा रचित बतलाना, और इस तरह उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का अपलाप करना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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