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अ०२/प्र०३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ८१ में इसी समय बोटिकमत की उत्पत्ति बतलायी गयी है, जिसे डॉक्टर सा० ने यापनीयमत माना है। (जै.ध. या. स./पृ.१६-१७)। यह उनके अनुसार उत्तरभारतीय-सचेलाचेलनिर्ग्रन्थपरम्परा के विभाजन से ही उत्पन्न हुआ था। किन्तु बाद में उन्होंने अपना मत बदल दिया और ईसा की पाँचवीं शती के प्रथम चरण तक उसे विद्यमान मान लिया। अपना परिवर्तित मत प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं
"यह सही है कि ईसा की दूसरी शताब्दी से वस्त्रपात्र के प्रश्न पर विवाद प्रारंभ हो गया, फिर भी यह निश्चित है कि पाँचवीं शताब्दी से पूर्व श्वेताम्बर, दिगम्बर
और यापनीय जैसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे। निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बर), श्वेतपट-महाश्रमणसंघ और यापनीयसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख हल्सी के पाँचवीं शती के अभिलेखों में ही मिलता है।" (जै.ध.या.स./ पृ.३६८)।
"स्पष्ट सम्प्रदायभेद, सैद्धान्तिक मान्यताओं का निर्धारण और श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे नामकरण पाँचवीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आये हैं।' (जै. ध. या. स./ पृ.३७२)।
इस प्रकार श्वेताम्बर-यापनीय संघों का उत्पत्तिकाल ईसा की पाँचवीं शताब्दी (देवगिरि-हल्सी-अभिलेख / ई० सन् ४७०-४९० से कुछ वर्ष पूर्व) घोषित कर डॉ० सागरमल जी ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि श्वेताम्बर-यापनीयों की जननी उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा ईसा की पाँचवीं सदी के प्रारंभ तक विद्यमान थी।
____ डॉक्टर सा० मानते हैं कि ऐकान्तिक अचेलमार्गी श्रमणसंघ या श्रमणपरम्परा (दिगम्बर-परम्परा) का प्रवर्तन ईसा की पाँचवीं शती में दक्षिणभारत में आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा किया गया। डॉक्टर सा० ने इसे दक्षिणभारतीय निर्ग्रन्थसंघ नाम दिया है। 'दक्षिणभारतीय निर्ग्रन्थसंघ' नाम का प्रयोग डॉक्टर सा० के निम्नलिखित कथन में मिलता है-"दक्षिणभारत का वह निर्ग्रन्थसंघ (मूलसंघ) आगमों को विच्छिन्न मानने लगा था। --- इस प्रकार आगमों के विच्छिन्न होने के प्रश्न पर दक्षिणभारत के निर्ग्रन्थमूलसंघ और यापनीयों में मतभेद रहा होगा।" (जै.ध. या.स./ पृ.४६)।
निम्नलिखित उद्धरणों में उन्होंने दक्षिणभारतीय निर्ग्रन्थसंघ को आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा स्थापित बतलाया है
में बतलायी है। (जै.ध.या.स./ विषय प्रवेश / पृ.१६-१७)। यह उचित नहीं है। प्रायः सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों ने वीरनिर्वाणवर्ष ईसापूर्व ५२७ माना है। तदनुसार वीरनिर्वाण संवत् ६०९ सन् ८२ के समकक्ष सिद्ध होता है। (देखिये, अध्याय १०/ प्रकरण ५/शी.३.३–'विरोधी तर्कों का निरसन')।
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