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________________ तृतीय प्रकरण उत्तरभारतीय सचेलाचेल निर्ग्रन्थसंघ कपोलकल्पित अचेल-सचेल दोनों लिंगों से मुक्ति के उपदेश की कल्पना डॉ. सागरमल जी ने इतिहास के विरुद्ध एक यह उद्भावना की है कि 'भगवान् महावीर ने अचेललिंग और सचेललिंग दोनों से मुक्ति होने का उपदेश दिया है। सचेललिंग से मुक्ति संभव होने से स्त्री भी तद्भवमुक्ति के योग्य बतलायी गई है।' श्वेताम्बरसाहित्य में अचेललिंग को जिनकल्प और सचेललिंग को स्थविरकल्प के नाम से अभिहित किया गया है। डॉक्टर सा० की मान्यता है कि उत्तरभारत में तीर्थंकर महावीर के समय से ही उनका अनुयायी जो श्रमणसंघ था, वह अचेल और सचेल दोनों लिंगों को मोक्षमार्ग मानता था। इस संघ को उन्होंने उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थसंघ नाम से अभिहित किया है। (जै.ध.या.स./ पृ.३६६)। मैंने इसके साथ सचेलाचेल विशेषण जोड़कर डॉक्टर सा० के अभिप्राय को स्पष्ट कर दिया है, ताकि पाठकों को निर्ग्रन्थ शब्द से यह भ्रम न हो कि इस संघ के साधु नग्न ही रहते थे। डॉक्टर सा० ने इस संघ (सम्प्रदाय या परम्परा) में श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की समस्त मान्यताओं को समाविष्ट कर दिया है। सचेलमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिकवलाहर, मल्लितीर्थंकर का स्त्री होना और महावीर का गर्भपरिवर्तन, ये मान्यताएँ श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में समान हैं, जो इसमें समाविष्ट की गयी हैं। परीषहादिसहन में असमर्थ मोक्षार्थी पुरुषों के लिए सचेललिंग और समर्थ पुरुषों के लिए अचेललिंग के विधान की मान्यता यापनीयों की विशिष्ट मान्यता है। डॉ० सागरमल जी ने इसे दृष्टि में रखते हुए अचेललिंग का विधान भी स्वकल्पित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ में कर दिया है, ताकि वे इस संघ से श्वेताम्बर और यापनीय दोनों सम्प्रदायों की उत्पत्ति बतला सकें। इस प्रकार डॉक्टर सा० ने उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निग्रन्थसंघ इस नये नाम से श्वेताम्बरसंघ को ही भगवान् महावीर के उपदेशों का पालन करनेवाला भारत का प्राचीनतम जैन श्रमणसंघ बतलाया है। डॉक्टर सा० ने स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का अस्तित्व पहले तो वीरनिर्वाण संवत् ६०९ (ई० सन् ८२)६१ तक माना था, क्योंकि श्वेताम्बरग्रन्थों ६१. डॉ० सागरमल जी ने भगवान् महावीर का निर्वाण ईसापूर्व ४६७ में मानकर वीरनिर्वाण सं० ६०९ को ई० सन् १४२ (वि.सं.१९९) के समकक्ष माना है। अतः उन्होंने बोटिकमत (उनके अनुसार यापनीयमत) की उत्पत्ति ई० सन् १४२ (ईसा की द्वितीय शताब्दी) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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