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७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०२ दिगम्बरमत प्रकट हुआ। इन कथनों में महान् अन्तर्विरोध है। इस विरोध से निम्नलिखित विसंगतियाँ पैदा होती हैं
१. यदि कदम्बवंशीय श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के काल (विक्रम की छठी शती) में कुन्दकुन्द के सुधारवादी अभियान के फलस्वरूप शिवभूतिप्रणीत मूलसंघ के टूटने से यापनीयसंघ और दिगम्बरसंघ की उत्पत्ति मानी जाय, तो यह सम्भव नहीं है। क्योंकि श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा और मृगेशवर्मा के शिलालेखों (क्र. ९८ और ९९) में निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ (दिगम्बरसंघ), श्वेतपटमहाश्रमणसंघ, यापनीयसंघ तथा कूर्चकों को तो दान दिये जाने का उल्लेख है, किन्तु 'मूलसंघ' नाम के किसी संघ का उल्लेख नहीं है। इससे सिद्ध है कि विक्रम की छठी शताब्दी में निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ से अलग किसी मूलसंघ का अस्तित्व नहीं था। अतः उसके टूटने से यापनीयसंघ, दिगम्बरसंघ आदि के उत्पन्न होने की कथा अप्रामाणिक है।
२. मृगेशवर्मा के शिलालेख में यापनीयसंघ का उल्लेख है। इससे उसकी उत्पत्ति मृगेशवर्मा के काल से कम से कम पचास वर्ष पूर्व माननी होगी। और कुन्दकुन्द के सुधारवादी अभियान से यापनीयसंघ एवं दिगम्बरसंघ की उत्पत्ति मानने पर कुन्दकुन्द का अस्तित्व भी मृगेशवर्मा एवं श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा से कम से कम पचास वर्ष पूर्व मानना होगा। इस स्थिति में कुन्दकुन्द श्रीविजयशिवमृगेशकालीन, अत एव उनके गुरु सिद्ध नहीं होते, जबकि मुनि जी ने ऐसा माना है।
३. यदि श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के काल में मूलसंघ की बजाय यापनीयसंघ से दिगम्बरसंघ का उद्भव माना जाय तो यह भी असंगत है। क्योंकि श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के शिलालेख में निर्ग्रन्थ महाश्रमणसंघ (दिगम्बरसंघ) को दान दिये जाने का वर्णन है, जिससे सिद्ध होता है कि उसका अस्तित्व श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के बहुत पहले से था।
४. मुनि जी ने विक्रम की छठी शताब्दी में तथाकथित शिवभूतिवाले मूलसंघ के विभाजन से दिगम्बरसंघ, यापनीयसंघ, काष्ठासंघ, माथुरसंघ, द्राविड़संघ आदि की उत्पत्ति बतलायी है। यह प्रामाणिक नहीं है। यापनीयसंघ के सिद्धान्त तो मुनि जी के अनुसार तथाकथित शिवभूतिवाले मूलसंघ से पृथक् नहीं थे, अतः यापनीयसंघ की उत्पत्ति को तो मूलसंघ का केवल नाम परिवर्तन ही कहा जा सकता है। शेष चारों संघ सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के विरोधी थे, अतः वे दिगम्बरसंघ की ही विभिन्न शाखाएँ थीं। यदि इनकी उत्पत्ति एक साथ उक्त मूलसंघ के विभाजन से हुई थी, तो मुनि जी का यह कथन असंगत हो जाता है कि दिगम्बरमत की
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