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________________ अ०२ / प्र० २ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ७७ वेसरा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां च मोक्षं कथयन्ति ।" (श्र.भ.म./ पृ.३३५) । पूर्वोद्धृत वक्तव्य (शीर्षक ३) में मुनिजी ने कहा है कि "यापनीयसम्प्रदाय आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के सिद्धान्तों को मानता था । कुन्दकुन्द इन्हें अनुचित मानते थे अतः वे इन्हें निरस्त करना चाहते थे । किन्तु उनके यापनीयगुरु और सहधर्मियों ने साथ नहीं दिया, फलस्वरूप वे संघ से अलग हो गये और इन सिद्धान्तों को अमान्य करनेवाला नया दिगम्बरमत चला दिया ।" (मुनि जी के कथन का सार) | इससे स्पष्ट है कि दिगम्बरमत और यापनीयमत में महान् सैद्धान्तिक भेद था । फिर वे दोनों अभिन्न कैसे हो सकते हैं? और जब वे अभिन्न नहीं थे, तो यापनीयसंघ दिगम्बरसम्प्रदाय का पूर्वनाम कैसे हो सकता है? यह तो मिथ्याकथन कर दिगम्बरसम्प्रदाय को यापनीयसम्प्रदाय से उद्भूत एवं अर्वाचीन सिद्ध करने का कुप्रयास है। तथा मुनि जी ने विक्रम की छठी शताब्दी में कुन्दकुन्द द्वारा यापनीयसम्प्रदाय में दीक्षित होने के बाद उससे अलग होकर दिगम्बरमत की स्थापना किये जाने की कल्पना के आधार पर उसे यापनीयमत से उद्भूत एवं अर्वाचीन माना है। किन्तु पूर्व में वे शिलालेखीय एवं साहित्यिक प्रमाण उपस्थित किये गये हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि दिगम्बरपरम्परा विक्रम की छठी शताब्दी के बहुत पहले से चली आ रही थी। अतः वह यापनीयसम्प्रदाय से उद्भूत सिद्ध नहीं होती । अत एव यह भी सिद्ध नहीं होता कि दिगम्बरसम्प्रदाय का पूर्वनाम यापनीयसंघ था। किन्तु मुनि कल्याणविजय जी ने इतिहासग्रन्थ में ऐसा लिखकर इतिहास को कपोलकल्पनाओं का अभिलेख बनाने का प्रयास किया है। १४ परस्परविरोधी धराशायी होती कहानियाँ मुनि जी ने अपने पूर्वोद्धृत मनगढ़न्त निष्कर्षों में एक स्थान पर कहा है कि "शिवभूति के द्वारा स्थापित एवं मूलसंघ नाम से प्रसिद्ध ( सचेलाचेल) सम्प्रदाय, जब कुन्दकुन्द के द्वारा किये गये सुधारों के फलस्वरूप विभाजित हुआ, तब यापनीयसंघ, काष्ठासंघ, माथुरसंघ आदि संघ बन गये ।" लेकिन दूसरे स्थान पर कहते हैं कि " यापनीयसंघ के टूटने से दिगम्बरसंघ, द्राविड़संघ आदि संघ बने ।" (देखिये, इसी प्रकरण का शीर्षक ३ ) । अर्थात् पूर्वकथन के अनुसार कुन्दकुन्द द्वारा प्रणीत माने गये दिगम्बरमत के साथ ही यापनीयसंघ उत्पन्न हुआ और दूसरे कथन के अनुसार यापनीयसंघ से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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