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७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र० २
भी दक्षिणभारत में ही उपलब्ध हुआ है । ६° प्राचीन इतिहास के विद्वान् श्री काशीप्रसाद जी जायसवाल भी लिखते हैं कि यापनीयसंघ का उद्भव और विकास दक्षिणापथ में हुआ था, क्योंकि वे मुख्यतः कर्नाटक के शिलालेखों में ही दृष्टिगोचर होते हैं । (देखिये, अध्याय ७/ प्र.१ / शी. ९ ) ।
इतिहासज्ञों के ये विचार इस बात की पुष्टि करते हैं कि यापनीयसंम्प्रदाय की उत्पत्ति दक्षिणापथ में ही हुई थी । अतः मुनि श्री कल्याणविजय का यह मत सर्वथा अप्रामाणिक सिद्ध होता है कि बोटिकसंघ दक्षिण में जाकर यापनीयसम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
१२
'मूलसंघ' यापनीयसंघ का पूर्वनाम नहीं
मुनि कल्याणविजय जी कहते हैं कि शिवभूति ने अपने सम्प्रदाय का नाम पहले मूलसंघ रखा, पश्चात् दक्षिणापथ में जाने पर 'यापनीय' कहलाने लगा ।
मेरा कथन यह है कि बोटिकसंघ ऐकान्तिक अचेलमार्गी दिगम्बरसंघ था। अतः उसका मूलसंघ नाम उचित ही था । किन्तु यापनीयसंघ का पूर्वनाम मूलसंघ था, यह कथन प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि किसी भी प्राचीन ग्रन्थ या शिलालेख में यापनीयसंघ को मूलसंघ नाम से अभिहित नहीं किया गया है। तथा मूलसंघ उसे कहते हैं, जिससे कोई अन्य संघ उद्भूत हुआ हो । किन्तु यापनीयसंघ से किसी अन्य संघ का उद्भव नहीं हुआ था। इसलिए उसके मूलसंघ नाम से अभिहित किये जाने की कल्पना तर्कसंगत नहीं है। इस विषय का विस्तार से विवेचन 'यापनीय संघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय में द्रष्टव्य है ।
१३
यापनीयसंघ दिगम्बरसंघ का पूर्वनाम नहीं
पूर्वोक्त मुनि जी ने लिखा है - "दिगम्बरसम्प्रदाय का पूर्वनाम ‘यापनीयसंघ' था, जो श्वेताम्बरीय परम्परा के आचार-विचार का अनुसरण करनेवाला और कतिपय जैन आगमों को भी माननेवाला था । परन्तु पिछले दिगम्बराचार्य यापनीयसंघविषयक अपना पूर्वसम्बन्ध भूल गये और नग्नता के समर्थक होते हुए भी श्वेताम्बरीय आगम और आचार-विचारों के कारण उसे 'खच्चर' तक की उपमा देने में न सकुचाये। देखिए 'षट्प्राभृत' (दंसणपाहुड / ११ ) की टीका में श्रुतसागर के निम्नोद्धृत वाक्य - " यापनीयास्तु
६०. देखिए, प्रस्तुत ग्रन्थ का 'यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय ।
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