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अ०२/प्र०२
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ७५ का संघ है। इसका समर्थन उन्होंने तमिलनाडु में प्राप्त ई० पू० प्रथम-द्वितीय शती के ब्राह्मीलिपि में उत्कीर्ण अभिलेखों से किया है। (ग्रन्थकार के वचन अध्याय ६ के प्रकरण २ में द्रष्टव्य हैं)। डॉ० सागरमल जी के इस प्रमाणसिद्ध संशोधित मत से मुनि कल्याणविजय जी एवं पं० दलसुख जी मालवणिया की यह मान्यता निरस्त हो जाती है कि आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बरमत के प्रवर्तक थे और यह स्थापित होता है कि दिगम्बर-परम्परा श्रुतकेवली भद्रबाहु और उनकी गुरुपरम्परा-जितनी पुरानी है अर्थात् भगवान् महावीर-जितनी प्राचीन।
बोटिकसंघ की दक्षिणयात्रा अप्रामाणिक
मुनि कल्याणविजय जी ने लिखा है-"यद्यपि शिवभूति के सम्प्रदाय का उद्भव उत्तरापथ में हुआ था, पर वहाँ उसका अधिक प्रचार नहीं हो सका।---इस स्थिति में शिवभूति या उनके अनुयायियों का वहाँ टिकना बहुत कठिन था। इस कठिनाई के कारण उस सम्प्रदाय ने उधर से हटकर दक्षिणापथ की तरफ प्रयाण किया।" (अ.भ.म./पृ.३०१)।
इस घटना के समर्थन में मुनि जी ने कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया, न बोटिक संघोत्पत्ति-कथा का वर्णन करनेवाले ग्रन्थों में, न अन्य किसी ग्रन्थ अथवा शिलालेख में इसका उल्लेख है। इससे सिद्ध है कि बोटिकसंघ के उत्तर से दक्षिण में जाने की बात मुनि जी ने अपने मन से कल्पित की है।
पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि शिवभूति ने किसी नये सम्प्रदाय को जन्म नहीं दिया था, अपितु जिनप्रणीत ऐकान्तिक अचेल (दिगम्बर) परम्परा को अंगीकार किया था। और वह परम्परा उत्तर-दक्षिण दोनों में विद्यमान थी। इसलिए शिवभूति के दिगम्बर बन जाने पर उसे उत्तरभारत में ही विशाल निर्ग्रन्थश्रमणसंघ प्राप्त हो गया था। अतः उसे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए दक्षिणापथ जाने की आवश्यकता ही नहीं थी। फलस्वरूप शिवभूति या उसके शिष्यों के दक्षिणापथ चले जाने की कथा कपोलकल्पित है।
जहाँ तक यापनीयसंघ का सवाल है इतिहासविद् डॉ० गुलाबचन्द्र जी चौधरी ने उस के विषय में लिखा है कि "यह संघ दक्षिणभारत की अपनी देन है।"५९ यापनीयसंघ पर विस्तृत शोध करनेवाले डॉ० ए० एन० उपाध्ये का भी कथन है कि यापनीयसंघ का उल्लेख दक्षिणभारत के ही शिलालेखों में मिलता है और उसका साहित्य
५९. जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र/भाग ३/प्रस्तावना / पृ.२५ ।
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