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________________ ७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२ / प्र० २ " अतः श्वेताम्बरकथा के अनुसार भी दिगम्बरपन्थ नया प्रमाणित नहीं होता । किन्तु उसमें जो जम्बूस्वामी के पश्चात् ही जिनकल्प का विच्छेद तथा शिवभूति के द्वारा उसकी पुनः प्रवृत्ति आदि बतलाई गई है, उसका समर्थन अन्य स्रोतों से नहीं होता और न यह बात ही गले उतरती है कि आदर्शमार्ग का एकदम लोप हो जाये, और फिर एक शिवभूति के द्वारा, जो न ऐतिहासिक व्यक्ति ही है और न कोई प्रभावशाली पुरुष ही प्रतीत होता है, पुनः दिगम्बरमार्ग का प्रचलन इतने जोरों से हो जाये । इन्हीं कारणों से किसी ऐतिहासिक विद्वान् ने संघभेद की उत्पत्ति में श्वेताम्बरकथा को प्रश्रय नहीं दिया, जबकि दिगम्बरकथा की घटना को अनेक इतिहासज्ञों ने स्थान दिया है। १५ १०.६. श्वेताम्बरग्रन्थों में कुन्दकुन्द का उल्लेख नहीं शिवभूति कोई प्रसिद्ध पुरुष नहीं था, फिर भी श्वेताम्बराचार्यों ने उसे दिगम्बरमत का प्रवर्तक कहा है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द तो प्रसिद्ध पुरुष थे। यदि वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए होते, तो आवश्यक - नियुक्तिकार भद्रबाहु के समकालीन होते । और यदि उन्होंने दिगम्बरमत का प्रवर्तन किया होता, तो भद्रबाहु आदि श्वेताम्बराचार्य इसके प्रत्यक्षदर्शी होते। अपनी आँखों के सामने एक विरोधीमत के उद्भव से उनमें तीव्र प्रतिक्रिया हुई होती और वे अपने 'आवश्यकनिर्युक्ति' आदि ग्रन्थों में कुन्दकुन्द को दिगम्बरमत का संस्थापक बतलाते तथा 'विशेषावश्यकभाष्य' आदि में जैसी निन्दा बोटिक शिवभूति की की गई है, वैसी ही कुन्दकुन्द की, की जाती। किन्तु 'आवश्यकनिर्युक्ति' आदि किसी भी श्वेताम्बरग्रन्थ में कुन्दकुन्द के दिगम्बरमत- प्रवर्तक होने का उल्लेख नहीं है। एक बोटिक शिवभूति जैसे साधारण पुरुष को उसका प्रवर्तक बतलाया है, वह भी वीर नि० सं० ६०९ ( ई० सन् ८२) में । यह इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि नियुक्तिकार भद्रबाहु आदि के समय में न तो कुन्दकुन्द हुए थे, न ही उनके द्वारा दिगम्बरमत की स्थापना की गयी थी । १०.७. दिगम्बरसंघ भद्रबाहु की परम्परा का संघ : डॉ० सागरमल जी यद्यपि डॉ० सागरमल जी ने अपने पूर्वलिखित ग्रन्थ जैनधर्म का यापनीयसम्प्रदाय में मुनि कल्याणविजय जी एवं पं० दलसुख 'जी मालवणिया का अनुसरण करते हुए यह माना है कि दिगम्बरसंघ की स्थापना विक्रम की छठी शती में दक्षिण भारत के आचार्य कुन्दकुन्द ने की थी ( ग्रन्थलेखक के वचन इसी प्रकरण के शीर्षक ४ में उद्धृत हैं), तथापि आठ वर्ष बाद लिखे गये अपने नवीन ग्रन्थ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा में उन्होंने इस मान्यता का परित्याग कर दिया है और यह स्वीकार किया है कि वर्तमान दिगम्बरसंघ ईसापूर्व चौथी शताब्दी में हुए श्रुतकेवली भद्रबाहु की परम्परा ५८. वही / पृ.३९२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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