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________________ अ०२/प्र०२ . काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ७३ को अछूता छोड़ते हुए जैनधर्म का लंका में प्रवेश होना असम्भव है।" (दक्षिणभारत में जैनधर्म/ पृ.१-३)। इस प्रकार दक्षिण भारत में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के ससंघ प्रवास से पूर्व दिगम्बर-जैनपरम्परा का अस्तित्व एक ऐतिहासिक सत्य है। अतः पाँचवीं शताब्दी ई० में तो क्या, ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में भी कुन्दकुन्द के द्वारा दिगम्बरमत का प्रवर्तन मानना इतिहासविरुद्ध है। १०.५. शिवभूति द्वारा जिनेन्द्रगृहीत अचेललिंग का अंगीकार बोटिक शिवभूति समस्त तीर्थंकरों द्वारा अपनाये गये सर्वथा अचेललिंग को ही मोक्ष का एकमात्र मार्ग बतलाता है। इससे यह तथ्य प्रकाश में आता है कि दिगम्बरमत बोटिक शिवभूति अथवा आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा नहीं चलाया गया, बल्कि ऋषभादि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। उसका आचरण कठिन होने के कारण देहसुखाभिलाषी सचेलमार्गियों ने हीनसंहननधारी पुरुषों को उसके अयोग्य घोषित कर दिया था। किन्तु शिवभूति ने स्वयं को उसके अयोग्य मानने से इनकार कर दिया और सचेलमार्ग का त्याग कर सर्वथा अचेल दिगम्बरमार्ग अपना लिया। इस तरह उसने नवीनमत का प्रवर्तन नहीं किया था, अपितु परम्परागत मत का ही वरण किया था। निष्कर्षतः यह कथा दिगम्बरमत की मौलिकता और प्राचीनता पर प्रकाश डालती है। स्व० पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने भी यही बात कही है। वे लिखते हैं "(बोटिक) कथा में भी यही बतलाया गया है कि जिनकल्प का विच्छेद होने के पश्चात् शिवभूति ने नग्न होकर जिनकल्प का प्रवर्तन किया और इस तरह बोटिकमत चल पड़ा। किन्तु इससे दिगम्बरमत अर्वाचीन प्रमाणित नहीं होता, क्योंकि जब जिनकल्प को दिगम्बरत्व का प्रतिरूप माना गया है और जम्बस्वामी तक उसका प्रचलन रहा है तथा उसे ही शिवभूति ने धारण किया, तो उसने नवीनमत कैसे चलाया? जो पुराना था तथा एक पक्ष ने जिसके विच्छेद होने की घोषणा कर दी थी, उसी का पुनः प्रवर्तन करना नवीन मत का चलाना तो नहीं है। यदि जिनकल्प पहले कभी प्रचलित न हुआ होता तथा जैनपरम्परा में उसे आदर प्राप्त न हुआ होता, तो उसे नवीन मत कहा जा सकता था। किन्तु उत्तरकालीन श्वेताम्बरसाहित्य में जिनकल्प का समादर पाया जाता है। श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्य के टीकाकारों ने प्रायः प्रत्येक कठिन आचार को जिनकल्प का आचार बताया है। उसके सम्बन्ध में केवल इतना ही विरोध था कि पंचम काल में उसका विच्छेद हो गया है, क्योंकि उसका धारण करना शक्य नहीं है। शिवभूति को भी यही कहकर समझाया गया था। किन्तु उसने यही उत्तर दिया कि असमर्थ के लिए जिनकल्प का विच्छेद भले ही हुआ हो, समर्थ के लिए उसका विच्छेद कैसे हो सकता है?" ५७ ५७. जैन साहित्य का इतिहास / पूर्वपीठिका / पृ.३९० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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