________________
७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र०२ था और श्रमणों का अनुयायी था। डॉ. फ्लीट५२ और डॉ० बी० ए० स्मिथ५३ ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि चन्द्रगुप्त राज्य को त्यागकर साधु हो गया था और श्रवणबेळगोळ में उसका स्वर्गवास हुआ। ___ "अतः परम्परागत अनुश्रुति और प्राप्त अभिलेखों में कुछ मामूली बातों को लेकर मतभेद होते हुए भी यह एक निर्विवाद सत्य माना जाता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में जैन संघ दक्षिण की ओर गया था ५४ और इस तरह कुछ विद्वान् ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रवेश मानते हैं। किन्तु प्रकृत विषय का गम्भीरता से अध्ययन करनेवाले कुछ विद्वानों का मत है कि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के आगमन से भी पूर्व दक्षिण भारत में जैनधर्म वर्तमान होना चाहिए। इसके वे नीचे लिखे कारण बतलाते हैं
"१. इतने बड़े साधुसंघ को दक्षिण की ओर ले जाने से पूर्व भद्रबाहु को अवश्य ही यह विश्वास होना चाहिए था कि उस सुदूर देश में उनके संघ का उचित आतिथ्य होगा, क्योंकि जैन साधुओं के आहारादि की विधि ऐसी नहीं है, जिसका निर्वाह जैनधर्म से अनजान व्यक्ति कर सकता हो। अतः इससे प्रकट होता है कि कर्नाटक और तमिलनाडु के दक्षिण भागों में जैनधर्म के अनुयायी पूर्व से विद्यमान थे।५५
"२. बौद्ध ग्रन्थ 'महावंश' की रचना श्रीलंका के राजा धन्तुसेण (४६१-४७९ ई०) के समय में हुई थी। इसमें ५४३ ईसवीपूर्व से लेकर ३०१ ई० सन् तक के काल का वर्णन है। ४३७ ईसवीपूर्व के लगभग पाण्डुगाभय राजा के राज्यकाल में अनुराधापुर में राजधानी परिवर्तित हुई थी। महावंश में इस नये नगर की अनेक इमारतों का वर्णन है। उनमें से एक इमारत निर्ग्रन्थों के लिए थी। उसका नाम गिरि था और उसमें बहुत से निर्ग्रन्थ रहते थे। राजा ने निर्ग्रन्थों के लिए एक मंदिर भी बनवाया
था।५६
"महावंश के इस लेख के अनुसार श्रीलंका में ईसा पूर्व ५वीं शती के लगभग जैनधर्म का प्रवेश हुआ होना चाहिए। और उत्तर भारत से दक्षिण भारत के प्रदेश
५२. 'एपिग्राफिका इण्डिका'/जि.३ / पृ.१७१ और 'इण्डियन ऐण्टिक्वेरी'/ जिल्द २१/ पृ.१५६। ५३. 'अर्ली हिस्ट्री ऑव इण्डिया।' ५४. 'स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म'। पृ.१९ आदि, 'मिडियावल जैनिज्म'/ पृ. ३-४।
'जैनिज्म ऐण्ड कर्नाटक कल्चर'/प्र.५-६। ५५. 'प्रवचनसार' की अंग्रेजी प्रस्तावना : डॉ. ए.एन. उपाध्ये। ५६. 'स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म'/ पृ.३२ आदि।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org