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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ७१ वे अपरिचितों और परधर्मियों के बीच कदापि न जाते। जैन परम्परा में जो यह अनुश्रुति है कि दक्षिण का पाण्ड्य राजा शुरू से ही जैन था और भद्रबाहु को उसके आतिथ्य की अपेक्षा थी, इसकी कोई ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि अवश्य होनी चाहिए। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी 'दक्षिणभारत में जैनधर्म' नामक ग्रन्थ में निम्नलिखित शब्दों में इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है __ "उत्तर भारत जैनधर्म की जन्मभूमि है। भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में ही हुआ था, किन्तु उनका विहार दक्षिण भारत में भी हुआ था। इसलिए दक्षिण भारत में जैनधर्म के प्रवेश का कोई सुनिश्चित काल नहीं है। किन्तु भारतीय इतिहास के कतिपय अन्वेषक उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की दक्षिणयात्रा के साथ दक्षिण में जैनधर्म का प्रवेश मानते हैं। "दाक्षिणात्य अनुश्रुति के अनुसार, जिसका समर्थन साहित्यिक अभिलेखों और शिलालेखों से होता है, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में उत्तर भारत में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु श्रुतकेवली ने बारह हजार मुनियों के संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे। श्रवणबेळगोळ पहुँचने पर भद्रबाहु को लगा कि उनका अन्त समय निकट है, अतः उन्होंने संघ को आगे चोल, पाण्ड्य आदि प्रदेशों की ओर जाने का आदेश दिया और स्वयं श्रवणबेळगोळ में ही एक पहाड़ी पर, जिसे कलवप्पु या कटवप्र कहते थे, रह गये। अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ उन्होंने अपना अन्तिम समय वहीं बिताया और समाधिपूर्वक शरीर को त्यागा। ___"उक्त आशय का एक शिलालेख उसी पहाड़ी पर, जिसे आज चन्द्रगिरि कहते हैं, अंकित है और उसका समय ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी सुनिश्चित है। श्री लूईस राईस ने तथा प्राक्तन-विमर्शविचक्षण महामहोपाध्याय आर० नरसिंहाचार्य ने उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके प्रकाश डाला था।° लूईस राईस के इस मत का कि चन्द्रगुप्त जैन था और वह दक्षिण की ओर गया था, थॉमस जैसे प्रमुख विद्वानों ने दृढ़ता से समर्थन किया था। 'जैनिज्म आर द अर्ली फेथ ऑफ अशोक' नामक निबन्ध में उसने कहा है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन था, इस विषय में विवाद की आवश्यकता नहीं है।५१ मेगस्थनीज भी लिखता है कि वह ब्राह्मणों के सिद्धान्तों को नहीं मानता ५०. लूईस राईस-'मैसूर ऐण्ड कुर्ग फ्रॉम द इन्सक्रिप्शन्स'/पृ.२-१० । नरसिंहाचार्य-'इन्सक्रिप्शन्स __ऍट श्रवणबेळगोळ'/ पृ.३६-४०। स्मिथ-'अर्ली हिस्ट्री ऑव इण्डिया'। पृ.७५-७६ । ५१. 'द जर्नल ऑव द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी'। १९०१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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