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६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०२ उन्होंने यापनीय मान्यताओं के नहीं, अपितु श्वेताम्बरीय मान्यताओं के आगमसम्मत होने का निषेध किया था। इस तरह यह सिद्ध होता है कि सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि को अमान्य करनेवाली दिगम्बरपरम्परा कुन्दकुन्द के पहले से चली आ रही थी।
इसके अतिरिक्त मानव-मनोविज्ञान यह है कि जब सरल और कठिन, दोनों मार्गों से इष्टफल की प्राप्ति हो सकती हो, तब मनुष्य सरल मार्ग ही अपनाता है
और लोक भी सरलमार्ग का उपदेश देनेवाले की ओर ही आकृष्ट होता है। कहा भी गया है
अर्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत्।
इष्टस्यार्थस्य संसिद्धौ को विद्वान् यत्नमाचरेत्॥७ अनुवाद-"यदि मार्गस्थ आक के पेड़ में ही मधु मिल जाय, तो कोई पर्वत पर क्यों जायेगा? जब इष्ट वस्तु की प्राप्ति बिना प्रयत्न के संभव हो, तब ऐसा कौन समझदार आदमी होगा, जो उसे पाने के लिए व्यर्थ में कष्ट उठाना चाहेगा?"
कुन्दकुन्द ने परीषह-पीड़ा से बचानेवाले सवस्त्रलिंग और स्त्रीशरीर से मोक्ष की प्राप्ति असंभव बतलायी थी तथा शीतोष्णदंशमशकादि परीषहों का दुःख उत्पन्न करनेवाले एकमात्र अचेललिंग को ही मोक्ष का साधन प्ररूपित किया था। अतः उनके सिद्धान्त कठिन थे। यदि वे नये होते अर्थात् जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट न होते, तो कोई भी उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। क्योंकि जब जिनेन्द्रदेव ने मोक्ष का सरलमार्ग बतलाया हो, तब एक सामान्य पुरुष के द्वारा बतलाये गये कठिन मार्ग को अपनाने के लिए कौन तैयार होगा? धर्म के क्षेत्र में तो प्रायः यह होता आया है कि सुखशील प्रवृत्ति के लोगों ने आगमोक्त कठिन चर्या की उपेक्षा कर आगमविरुद्ध शिथिलाचार अपना लिया और नवीन शास्त्र लिखकर शिथिलाचार को जिनाज्ञा के नाम से प्रचारित कर दिया। भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट ऐकान्तिक अचेलमार्ग का परित्याग कर सर्वथा सचेलमार्ग या सचेलाचेल मार्ग का प्रवर्तन इसी प्रवृत्ति के कारण हुआ था। तब कुन्दकुन्द द्वारा प्ररूपित कठिन मार्ग यदि नवीन होता, जिनेन्द्रप्रणीत अर्थात् आगमोक्त न होता, तो उसे उन्मत्तप्रलाप कहकर लोग दूर से ही नमस्कार कर लेते। इसी प्रकार स्त्रीमुक्ति का निषेध यदि स्वयं कुन्दकुन्द ने किया होता, जिनेन्द्रदेव के द्वारा न किया गया होता, तो क्या कोई स्त्री कुन्दकुन्द के सिद्धान्तों में विश्वास कर अपने को मुक्ति से वंचित करने के लिए तैयार होती? कदापि नहीं। किन्तु दो हजार से भी अधिक वर्षों से सम्पूर्ण दिगम्बरपरम्परा आचार्य कुन्दकुन्द के ४७. सांख्यकारिकागत कारिका १ की सांख्यतत्त्वकोमुदीटीका में उद्धृत।
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