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________________ अ० २ / प्र० २ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ६७ ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बरजैन- परम्परा सिन्धुसभ्यता, ऋग्वेद के रचना काल तथा बौद्धमत से भी प्राचीन है। इसके प्रमाण उत्तर अध्यायों में प्रस्तुत किये जायेंगे। १०.३. आगमोक्त सरलमार्ग का निषेध अमनोवैज्ञानिक मुनि कल्याणविजय जी ने अपने पूर्वोद्धृत वक्तव्य में कहा है कि “छठी सदी के विद्वान् आचार्य कुन्दकुन्द, देवनन्दी वगैरह ने प्राचीन परम्परा से मजबूत मोरचा लिया। पहले जो सूत्र, निर्युक्ति आदि प्राचीन आगमों को इनके पूर्वाचार्य मानते आये थे, इन्होंने उनका मानना भी अस्वीकार कर दिया और अपने लिए आचार, विचार और दर्शनविषयक स्वतंत्र साहित्य की रचना की, जिसमें वस्त्र - पात्र रखने का एकान्तरूप से निषेध किया । यद्यपि इस ऐकान्तिक निषेध के कारण उन्हें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का भी निषेध करना पड़ा, क्योंकि स्त्रियों को सर्वथा अचेलक मानना अनुचित था और वस्त्रसहित रहते हुए उनकी मुक्ति मान लेने पर अपने वस्त्रधारी प्रतिस्पर्द्धियों की मुक्ति का निषेध करना असम्भव था । इसी तरह केवली का कवलाहार मानने पर उसके लाने के लिए पात्र भी मानना पड़ता और इस दशा में पात्रधारी स्थविरों का खण्डन नहीं करने पाते।” (श्र.भ.म. / पृ.३०२-३०५) । मुनि जी का यह कथन मनोवैज्ञानिक और तर्कसंगत नहीं है। एक सीधा-सरल प्रश्न उठता है कि जब यापनीयसम्प्रदाय में सवस्त्रपात्रलिंग से भी मुक्ति मानी गयी थी और वह मुक्ति का सरल मार्ग था, तब मुनि जी के अनुसार कुन्दकुन्द ने उसका निषेध क्यों किया, जिसका निषेध करने से स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का भी निषेध आवश्यक हो गया, जब कि उक्त सिद्धान्त यापनीयमत के अनुसार आगमसम्मत थे? क्या कुन्दकुन्द को (जो मुनिजी के अनुसार उस समय स्वयं यापनीय थे) उनके आगमसम्मत होने पर विश्वास नहीं था? या वे हीनशक्ति पुरुषों और स्त्रियों को मुक्त नहीं होने देना चाहते थे? अथवा वे कोई उन्मत्त पुरुष थे, जो अकारण आगमसम्मत सिद्धान्तों के विरोध में खड़े हो गये थे? समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय जैसे अद्वितीय ग्रन्थों के कर्त्ता के विषय में तो कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि वे उन्मत्त थे अथवा हीनशक्ति पुरुषों और स्त्रियों को मुक्त नहीं होने देना चाहते थे। तब एक ही कारण शेष रहता है कि उन्हें उक्त सिद्धान्तों के आगमसम्मत होने में विश्वास नहीं था। इसीलिए उन्होंने उनके विरोध में आवाज उठाई थी। और इससे फलित होता है कि कुन्दकुन्द के सामने ऐसे आगम थे, जिनमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि मान्यताओं का निषेध किया गया था और वे उन्हीं में विश्वास करते थे । किन्तु जैसा कि पूर्व में सिद्ध हो चुका है, कुन्दकुन्द ने कभी भी यापनीयसम्प्रदाय में प्रवेश नहीं किया था और उनके समय में यापनीयमत की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी, इसलिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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