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६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र०२
पृ. २२३ ) । तथा नन्दिसंघ की पट्टावलियों में पूज्यपाद की गुरुपरम्परा का भी उल्लेख है।
इन तथ्यों से भी स्पष्ट है कि दिगम्बरपरम्परा कदम्बवंशी राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा (४७० ई०) के बहुत पहले से अस्तित्व में थी । अतः मुनि कल्याणविजय जी का कुन्दकुन्द को श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा का समकालीन मानना और दिगम्बरमत का प्रवर्तक भी कहना, इन दोनों बातों में घोर असंगति है। इससे सिद्ध है कि मुनि जी की कुन्दकुन्द के दिगम्बरमत- प्रवर्तक होने की मान्यता कपोलकल्पित है।
१०.२. कुन्दकुन्द - प्ररूपित मार्ग जिनप्रणीत : आचार्य हस्तीमल जी
आचार्य हस्तीमल जी ने अपने 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' नामक ग्रन्थ में लिखा है- " आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने दादागुरु द्वारा संस्थापित भट्टारकपरम्परा की नव्य- नूतन मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह किया। वे माघनन्दी के शिष्य जिनचन्द्र के पास भट्टारकपरम्परा में ही दीक्षित हुए थे । मेधावी मुनि कुन्दकुन्द ने अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् दिगम्बर- परम्परा द्वारा सम्मत आगमों के निदिध्यासन - चिन्तन मनन से जब जिनेन्द्रप्रभु द्वारा प्ररूपित जैनधर्म के वास्तविक स्वरूप और तीर्थंकरों द्वारा आचरित श्रमणधर्म को पहिचाना, तो उन्हें अपने प्रगुरु माघनन्दी द्वारा संस्थापित धर्म और श्रमणाचारविषयक मान्यताएँ, धर्म और श्रमणाचार के मूलस्वरूप के अनुरूप प्रतीत नहीं हुई । उन्होंने सम्भवतः अपने प्रगुरु, गुरु और भट्टारकसंघ द्वारा सम्मत उन कतिपय अभिनव मान्यताओं के समूलोन्मूलन और पुरातन मान्यताओं की पुनः संस्थापना का संकल्प किया।" (जै.ध. मौ.इ./ भा.३/पृ.१४०) ।
इन वचनों से श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी ने स्वीकार किया है कि दिगम्बरपरम्परा के आगमों में जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्ररूपित धर्म के वास्तविक स्वरूप एवं तीर्थंकरों द्वारा आचरित श्रमणधर्म का प्ररूपण है और कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में इसी का निरूपण किया है। इसका अभिप्राय यह है कि आचार्य हस्तीमल जी यह मानते हैं कि सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का निषेध जिनेन्द्र प्रभु द्वारा उपदिष्ट है, क्योंकि कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में इनका निषेध किया है।
आचार्य हस्तीमल जी ने उपर्युक्त वचनों से मुनि कल्याणविजय जी तथा उनके अनुगामियों की इस मान्यता को अमान्य कर दिया है कि दिगम्बरपरम्परा का प्रवर्तन आचार्य कुन्दकुन्द ने विक्रम की छठी शताब्दी में किया था । उसे उन्होंने तीर्थंकरों द्वारा ही प्रवर्तित माना है।
किन्तु आचार्य जी ने कुन्दकुन्द को आरंभ में जो भट्टारकपरम्परा में दीक्षित माना है, वह अप्रामाणिक है। उसकी अप्रामाणिकता का प्रकाशन 'कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़ंत' नामक अष्टम अध्याय में किया जायेगा।
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