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________________ अ०२ / प्र० २ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ६५ अशोक के स्तम्भलेख में भी मिलता है। ४५ यह ऐतिहासिक प्रमाण मुनि जी के इस कथन को असंगत बना देता है कि दिगम्बरमत का प्रवर्तन कुन्दकुन्द ने किया था । और इस असंगति से वह सारी कथा कपोलकल्पित सिद्ध हो जाती है, जो उन्होंने कुन्दकुन्द के द्वारा दिगम्बरमत के प्रवर्तन को युक्तिसंगत बनाने के लिए गढ़ी है। उक्त असंगति का समर्थन अन्य प्रमाणों से भी होता है । ४७९ ई० के पहाड़पुर ताम्रपत्र में लिखा है कि वटगोहाली के विहार (मठ) में काशीदेशीय पञ्चस्तूपनिकाय के निर्ग्रन्थश्रमणों के आचार्य गुहनन्दी के शिष्य - प्रशिष्य वास करते थे। ४६ इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जब ई० सन् ४७९, में निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दी के शिष्य - प्रशिष्य विद्यमान थे, तब स्वयं गुहनन्दी और उनके गुरु- प्रगुरु उसके कितने वर्ष पूर्व विद्यमान रहे होंगे। कम से कम ७० - ८० वर्ष पूर्व तो मानना ही होगा। इससे भी सिद्ध होता है कि दिगम्बरपरम्परा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के बहुत पहले से चली आ रही थी । अतः इस प्रमाण से भी मुनि कल्याणविजय जी का यह कथन असंगत सिद्ध होता है कि दिगम्बरमत की स्थापना कुन्दकुन्द ने की थी । एक प्रमाण यह भी है कि दिगम्बराचार्य पूज्यपाद स्वामी ने ४५० ई० में तत्त्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका लिखी थी, जिसमें उन्होंने सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति तथा केवलि - कवलाहार आदि श्वेताम्बरीय एवं यापनीय मान्यताओं को विपरीत मिथ्यादर्शन का उदाहरण बतलाया है । यथा 'अथवा पञ्चविधं मिथ्यादर्शनम् - एकान्तमिथ्यादर्शनं विपरीतमिथ्यादर्शनं संशयमिथ्यादर्शनं वैनयिकमिथ्यादर्शनम्, अज्ञानिकमिथ्यादर्शनं चेति । सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः ।" ( स.सि./ ८ / १)। पूज्यपाद ने लिङ्गसिद्ध जीवों की व्याख्या करते हुए भी लिखा है कि अवेद अथवा तीनों भाववेदों से सिद्धि होती है, किन्तु द्रव्यवेद से नहीं होती । द्रव्य की अपेक्षा जीव पुंल्लिङ्ग से ही सिद्ध होता है - " लिङ्गेन केन सिद्धिः ? अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः । द्रव्यतः पुंल्लिङ्गेनैव ।" (स.सि./ १० / ९ ) । 44 तथा पूज्यपाद स्वामी ने जैनेन्द्रव्याकरण के सूत्रों में भूतबलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है। (ती.म.आ.प./खं.२/ ४५. --- सव पासंडेसु बाभनेसु आजीविकेसु निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ।" देहली - टोपरा - स्तम्भ - लेख / जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / भा. २ / लेख क्र. १ । ४६. “वटगोहाल्यामवास्यान् काशिक- पञ्चस्तूपनिकायिक-निर्ग्रन्थश्रमणाचार्य - गुहनन्दि- ।" पहाड़पुर - ताम्रपत्र / जिला - राजशाही, बंगाल / लेख क्र. १९ जैनशिलालेखसंग्रह / भारतीय ज्ञानपीठ / भाग ४ | शिष्यप्रशिष्याधिष्ठितविहारे --- Jain Education International 117 111 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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