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________________ ६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०२ और किस के वचन हो सकते हैं? किन्तु मुनि कल्याणविजय जी ने स्वयं कुन्दकुन्द के वचनों को अमान्य कर शिवभूति को उनका परम्परया गुरु बतलाया है, जिसे सत्य सिद्ध करनेवाला कोई भी साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इससे सिद्ध है कि मुनि जी द्वारा शिवभूति को यापनीय-सम्प्रदाय का संस्थापक बतलाया जाना और फिर कुन्दकुन्द को उसकी परम्परा का शिष्य कहा जाना, उनके द्वारा सोचसमझकर गढ़ी गयी कहानी है। १० कुन्दकुन्द के दिगम्बरमत-प्रवर्तक होने का मत कपोलकल्पित दिगम्बरमत कुन्दकुन्द से पूर्ववर्ती । यतः कुन्दकुन्द के यापनीयसंघ में दीक्षित होने की उद्भावना असत्य सिद्ध हो जाती है, अतः मुनि कल्याणविजय जी का यह निष्कर्ष भी मनगढन्त सिद्ध हो जाता है कि 'यापनीय कुन्दकुन्द ने यापनीयसंघ की मान्यताओं से असन्तुष्ट होकर विक्रम की छठी शती में दिगम्बर जैनमत का प्रवर्तन किया था।' (अ.भ.म. / पृ. ३२७-३२८/ देखिए , इसी प्रकरण का शीर्षक ३) ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि दिगम्बरजैनमत कुन्दकुन्द से पूर्ववर्ती है। वे इस प्रकार हैं१०.१. पाँचवीं शती ई० के पूर्व निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ का अस्तित्व मुनि जी ने डॉक्टर के० बी० पाठक के अनुसार कुन्दकुन्द को कदम्बवंशी राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा का समकालीन (४७०-४९० ई०) माना है तथा उन्हें दिगम्बरमत का प्रवर्तक भी बतलाया है। किन्तु इन्हीं श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के देवगिरि-ताम्रपत्रलेख में श्वेतपटमहाश्रमणसंघ और निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ को तथा पाँचवीं शती ई० के ही मृगेशवर्मा के हल्सी-अभिलेख में यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों को दान दिये जाने का उल्लेख है,४ जिससे स्पष्ट होता है कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द श्वेताम्बरों और यापनीयों से भिन्न दिगम्बरों का वाचक है, अतः दिगम्बरसम्प्रदाय (निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ) श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के बहुत पहले से विद्यमान था। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यदि हम दिगम्बरपरम्परा को बहुत ही अर्वाचीन मानें, तो श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के समय तक निर्ग्रन्थसंघ को महाश्रमणसंघ का रूप धारण करने तथा लोकप्रसिद्ध एवं राजमान्य होने के लिए कम से कम पचास वर्ष का समय तो आवश्यक मानना ही होगा। किन्तु निर्ग्रन्थसंघ का उल्लेख तो २४२ ई० पू० के सम्राट ४४. देखिए , अभिलेखों का मूलपाठ इसी अध्याय के षष्ठ प्रकरण में। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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