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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ६३ के शिष्य ने (मैंने ) उन भाषासूत्रों पर से उसको उसी रूप में जाना है और (जानकर इस ग्रन्थ में) कथन किया है। जो द्वादशांग के ज्ञाता थे, जिन्होंने चौदहपूर्वो का अत्यन्त विस्तार किया था तथा जो गमकों (व्याख्याकारों) के गुरु थे, उन श्रुतज्ञानी ( श्रुतकेवली) भद्रबाहु की जय हो।" कुन्दकुन्द ने समयसार में भी कहा है कि मैं श्रुतकेवली द्वारा उपदिष्ट समयप्राभृत का कथन करूँगा-"वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं।" ( गा.१)। श्रवणबेलगोल के शक सं० १०८५ ( ई० सन् १९६३) के शिलालेख में भी कुन्दकुन्द को श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य चन्द्रगुप्त के अन्वय में उत्पन्न बतलाया गया है। यथा श्रीभद्रस्सर्वतो यो हि भद्रबाहुरितिश्रुतः। श्रुतकेवलिनाथेषु चरमः परमो मुनिः॥ ४॥ श्रीचन्द्रप्रकाशोज्वलचन्द्रकीर्तिः श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः। यस्य प्रभावाद्वनदेवताभिराराधितः स्वस्य गणो मुनीनाम्॥ ५॥ तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः। श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः॥ ६॥ अभूदुमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छः। तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥ ७॥३ अन्वय का अर्थ है गुरु-शिष्य-क्रम। कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य चन्द्रगुप्त के अन्वय में हुए थे, इससे स्पष्ट है कि उन्हीं (भद्रबाहु) की शिष्यपरम्परा के कोई आचार्य कुन्दकुन्द के गुरु थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में निरपवाद अचेलमार्ग का ही निरूपण किया है, जिससे प्रमाणित होता है कि उनके परम्परागुरु भद्रबाहु निरपवाद-अचेलमार्गी थे। इसलिए उनकी शिष्यपरम्परा का भी निरपवाद-अचेलमार्गी होना अनिवार्य है। अतः भद्रबाहु के अन्वय में हुए कुन्दकुन्द के साक्षात् गुरु भी निरपवाद अचेलमार्गी थे, यह निर्विवाद है। ___ यदि कुन्दकुन्द यापनीयसम्प्रदाय के प्रवर्तक शिवभूति के साक्षात् या परम्पराशिष्य होते, तो वे उन्हें ही अपना गुरु बतलाते। किन्तु उन्होंने श्रुतकेवली भद्रबाहु को गुरु बतलाया है। अपनी गुरुपरम्परा के विषय में शिष्य के वचनों से अधिक प्रामाणिक ४३. जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / भाग १/ लेख क्रमांक ४०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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