SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२ / प्र० २ कुन्दकुन्द शिवभूति के समकालीन ( ईसवी प्रथम शती के) नहीं थे, बल्कि विक्रम की छठी शताब्दी में हुए थे । किन्तु पदच्छेद कैसा भी कर लिया जाय, जब शिवभूति यापनीयमत का प्रवर्तक था ही नहीं, तब लाख कोशिश करने पर भी यह सिद्ध नहीं हो सकता कि कुन्दकुन्द कभी यापनीय-परम्परा में दीक्षित हुए थे। ८ कुन्दकुन्द बोटिक शिवभूति से पूर्ववर्ती बोटिक शिवभूति के दिगम्बरमत स्वीकार कर लेने पर भी कुन्दकुन्द का उसकी परम्परा में दीक्षित होना संभव नहीं है, क्योंकि वे उससे पूर्ववर्ती थे । कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध और ईसोत्तर प्रथम शती के पूर्वार्ध में हुए थे, जब कि युवा बोटिक शिवभूति ने ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के अन्तिम चरण ( ई० सन् ८२, वीर० नि० सं० ६०९) में दिगम्बरमत स्वीकार किया था । कुन्दकुन्द के ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में होने का सप्रमाण प्रतिपादन 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय में द्रष्टव्य है । ९ कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहु के परम्परा - शिष्य दिगम्बरसाहित्य में जो प्रमाण मिलते हैं, वे मुनि जी की इस मान्यता को सर्वथा झुठलाते हैं कि कुन्दकुन्द यापनीयगुरु के शिष्य थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं अपने को श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्पराशिष्य बतलाया है । ४२ वे बोधपाहुड में कहते हैं सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ ६१ ॥ Jain Education International बारसअंगवियाणं सुयणाणिभद्दबाहू चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं । गमंयगुरूभयवओ जयऊ ॥ ६२ ॥ अनुवाद - " जिनेन्द्र भगवान् ने अर्थरूप से जो कथन किया है, वह भाषासूत्रों में शब्दविकार को प्राप्त हुआ है ( अनेक प्रकार के शब्दों में गूँथा गया है ) । भद्रबाहु ४२. "I am tempted to take the word Śisya as, a Parampara sisya and this is not without a parallel else where. With Jaina authors guru and siṣya do not necessarily mean direct, and contemporary teachers and pupils, but might even mean parampara guru and śisya, sometimes the influence of some previous teacher is so overwhelming that later pupils like to mention him as their guru." Prof. A.N. Upadhye : Pravacanasāra - Introduction, p. 16. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy