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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ६१ मुनि कल्याणविजय जी ने इन चारों सूरियों के भाषाज्ञान और व्याकरणज्ञान पर प्रश्नचिन्ह लगाकर अपने ही ज्ञान को सही ठहराया है। यहाँ निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं १. इसका क्या प्रमाण है कि 'कोडिन्न और कोट्टवीर' यह पदच्छेद सही नहीं है, अपितु 'कोडिन्नकोट्ट और वीर' यह सही है? २. इसका भी क्या प्रमाण है कि 'कोडिन्नकोट्ट' 'कोण्डकोण्ड' का अपभ्रंश (बिगड़ा हुआ रूप) है? ३. आवश्यकमूलभाष्यकार ने प्राकृत और संस्कृत के ज्ञाता होते हुए भी उक्त बिगड़े हुए रूप का प्रयोग क्यों किया? इन प्रश्नों का समाधान करनेवाले प्रमाण प्रस्तुत किये बिना ही मुनि जी ने यह घोषित कर दिया कि उक्त पदच्छेद सही नहीं है और 'कोडिन्नकोट' 'कोण्डकोण्ड' का बिगड़ा हुआ रूप है। किन्तु , मुनि जी से उक्त प्रमाणों की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने यह दावा नहीं किया है कि उनकी घोषणा प्रमाणसिद्ध तथ्य है। उन्होंने तो यह कहा है कि 'हमारे विचार में यह ऐसा है।' और सर्वज्ञ के अतिरिक्त किसी भी छद्मस्थ का विचार प्रमाणसिद्ध हुए बिना सत्य नहीं हो सकता, अतः मुनि जी की घोषणा सत्य नहीं है। यतः यह सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि चूर्णिकार आदि द्वारा किया गया पदच्छेद दोषपूर्ण है और 'कोडिन्नकोट्ट' 'कोण्डकोण्ड' का अपभ्रंश है, अतः सिद्ध है कि न तो उक्त पदच्छेद दोषपूर्ण है, न ही उक्त शब्द अपभ्रंश है। इस छलवाद के द्वारा मुनिजी ने यह साबित करने की कोशिश की है कि कोण्डकोण्ड (कुन्दकुन्द) शिवभूति के शिष्य थे, अर्थात् आरम्भ में यापनीयपरम्परा में दीक्षित हुए थे। इसी प्रकार परम्परास्पर्शम् (परंपराफासं) पद उत्पन्ना (उप्पण्णा) क्रिया का विशेषण है, जिसका अर्थ है शिवभूति के शिष्य 'कोडिन्न' और 'कोट्टवीर' से जो गुरुशिष्य-परम्परा चली, उससे बोटिकमत विकसित हुआ। किन्तु मुनि जी ने उसकी जगह परम्परास्पर्शकम् शब्द का प्रयोग कर उसे 'कोडिन्नकोट्ट' और 'वीर' अर्थात् कोण्डकोण्ड (कुन्दकुन्द) और वीर का विशेषण बना दिया है, जिससे यह अभिप्राय द्योतित होता है कि कुन्दकुन्द शिवभूति के साक्षात् शिष्य नहीं थे, अपितु परम्परा का स्पर्श करते हुए शिष्य बने थे अर्थात् परम्पराशिष्य थे। इस छलवाद का प्रयोग कर मुनि श्री कल्याणविजय जी ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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