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________________ ६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०२ कुन्दकुन्द के प्रथमतः यापनीयमतावलम्बी होने का मत असत्य उपर्युक्त प्रमाणों से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि बोटिक शिवभूति यापनीयमत का प्रवर्तक नहीं था, इसलिए मुनि कल्याणविजय जी की यह कथा स्वतः असत्य सिद्ध हो जाती है कि कुन्दकुन्द प्रारम्भ में बोटिक शिवभूति द्वारा प्रवर्तित यापनीयसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे और कुछ समय पश्चात् उससे अलग होकर उन्होंने दिगम्बरमत की स्थापना की थी। (अ.भ.म./पृ. ३२७-३२८। देखिए , इसी प्रकरण का शीर्षक ३)। __मुनि जी ने कुन्दकुन्द को यापनीयमत में दीक्षित सिद्ध करने के लिए आवश्यकमूलभाष्य की पूर्वोद्धृत १४८ वी गाथा में आये 'कोडिन्नकोट्टवीरा' पद को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की है, और आवश्यकमूलभाष्यकार के भाषाज्ञान में सन्देह व्यक्त किया है। वे लिखते हैं "भाष्य का पाठ 'कोडिन्नकोट्टवीरा' है, जिसका चूर्णिकार ने 'कोडिन्न' और 'कोट्टवीर' इस प्रकार पदच्छेद किया है और इन्हें शिवभूति का शिष्य लिखा है, परन्तु हमारे विचार में 'कोडिन्नकोट्ट' यह 'कोण्डकोण्ड' का अपभ्रंश है और 'वीर' यह वीरनन्दी, वीरसेन या इससे मिलते-जुलते नामवाले आचार्य का नाम है। भाष्य में इन्हें शिवभूति का शिष्य नहीं लिखा है, किन्तु ‘परम्परास्पर्शक' (भाष्य के शब्द-परंपराफासमुप्पण्णा) लिखा है। इससे स्पष्ट है कि ये शिवभूति के दीक्षाशिष्य नहीं, परम्पराशिष्य थे। अधिक प्रसिद्ध होने के कारण या दिगम्बरशाखा में महत्त्वपूर्ण कार्यकर होने के कारण भाष्यकार ने शिवभूति के अनन्तर इनका नामोल्लेख किया है।" (श्र.भ.म. / पा.टि. / पृ.२९४-२९५)। किन्तु जैसा पदच्छेद चूर्णिकार ने किया है, वैसा ही हरिभद्रसूरि तथा हेमचन्द्रसूरि ने भी किया है। देखिए १. "बोटिकशिवभूतेः सकाशात् बोटिकलिङ्गस्य भवत्युत्पत्तिः। --- ततः कौडिन्यः कुट्टवीरश्च, 'सर्वो द्वन्द्वो विभाषया एकवद्भवती' ति कौण्डिन्यकोट्टवीरं तस्मात् परम्परास्पर्शमाचार्यशिष्यसम्बन्धलक्षणमधिकृत्योत्पन्ना सजाता, बोटिकदृष्टिरध्याहरणीयेति गाथार्थः।" (हारि.वृत्ति / आव.निर्यु./ मूलभाष्य गा.१४८)। २. "ततः शिवभूतिना कौण्डिन्य-कोट्टवीरनामानौ द्वौ शिष्यौ दीक्षितौ। ---- तस्मात् कौण्डिन्य-कोट्टवीरात् परम्परास्पर्शमाचार्य-शिष्यसम्बन्ध-लक्षणमधिकृत्योत्पन्ना सजाता 'बोटिकदृष्टिः' इत्यध्याहारः।" (हेम.वृत्ति / विशे.भा./गा.२५५०-५१)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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