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________________ अ०२/प्र०२ __ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन /५९ ६.५. श्वेताम्बरसाहित्य में बोटिकों की 'यापनीय' संज्ञा नहीं यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि बोटिकों को दिगम्बर तो सभी श्वेताम्बराचार्यों ने कहा है, किन्तु यापनीय किसी ने भी नहीं कहा। यहाँ तक कि 'षड्दर्शनसमुच्चय' के टीकाकार ने यापनीयों का एक अन्य नाम 'गोप्य' तो बतलाया है-"गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते" (पृ.१६१), किन्तु 'बोटिक' नाम नहीं बतलाया। इससे भी बोटिकों की यापनीयों से भिन्नता और दिगम्बरों से अभिन्नता सिद्ध होती है। माननीय डॉ० सागरमल जी स्वयं अपने वचनान्तर से यह सिद्ध करते हैं कि बोटिक और यापनीय एक नहीं थे। उन्होंने बोटिकों की उत्पत्ति बोटिककथा के अनुसार वीरनिर्वाण के ६०९ वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी में मानी है, जैसा कि उन्होंने निम्नलिखित वाक्यों में लिखा है-"आवश्यकमूलभाष्य में जो वीरनिर्वाण के ६०९ वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शती में इस (बोटिक) सम्प्रदाय की उत्पत्ति का उल्लेख है, वह किसी सीमा तक सत्य प्रतीत होता है।" (जै.ध.या.स./पृ.१७)। किन्तु उन्होंने यापनीयसम्प्रदाय का उद्भव पाँचवी शताब्दी ई० में बतलाया है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने तत्त्वार्थ-भाष्य को यापनीयकृति माना है। इसका खण्डन करते हुए डॉक्टर सा० लिखते हैं "भाष्य तो यापनीयपरम्परा के पूर्व का है। भाष्य तीसरी-चौथी शती का है और यापनीयसम्प्रदाय चौथी-पाँचवी शती के पश्चात् ही कभी अस्तित्व में आया है।" (जै.ध.या.स./ पृ.३५७)। उमास्वाति के सम्प्रदायभेद का निर्धारण करते समय भी डाक्टर सा० लिखते हैं-"वे यापनीय भी नहीं हैं, क्योंकि यापनीयसम्प्रदाय का सर्वप्रथम अभिलेखीय प्रमाण भी विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध और ईसा की पाँचवीं शती के उत्तरार्ध (ई० सन् ४७५) का मिलता है।" (जै.ध.या.स./पृ.३७३)। । अन्यत्र भी उन्होंने कहा है-"तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक यापनीय उत्पन्न ही नहीं हुए थे, अतः उसे (तत्त्वार्थसूत्र को) यापनीय (ग्रन्थ) भी नहीं कहा जा सकता।" (जै.ध.या.स./पृ.३५०)। इस प्रकार डॉ० सा० के वचनों के अनुसार जब बोटिकसम्प्रदाय का उत्पत्तिकाल ईसवी द्वितीय शताब्दी है और यापनीयसम्प्रदाय का उदयकाल पाँचवी शती ईसवी है, तब स्पष्ट है कि डॉक्टर सा० भी दोनों सम्प्रदायों को एक नहीं मानते। निष्कर्ष यह कि किसी भी श्वेताम्बर आचार्य या विद्वान् ने बोटिकों को यापनीय नहीं कहा, जब कि उन्हें, 'दिगम्बर' अनेक श्वेताम्बराचार्यों ने कहा है। अतः श्वेताम्बरग्रन्थों में 'बोटिक' शब्द स्त्रीमुक्ति का निषेध करनेवाले दिगम्बरों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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