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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ६९ द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को गले का हार बनाये हुए है और उन्हें भगवान् महावीर और गौतम गणधर के बाद मंगल के रूप में स्मरण करती है। इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द के द्वारा प्ररूपित मोक्षमार्ग भगवान् महावीर के उपदेश पर आश्रित था और दिगम्बरमतानुयायी इससे सुपरिचित थे। इसीलिए उन्होंने कुन्दकुन्द द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया। कुन्दकुन्द ने कहा भी है कि "मैं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्पराशिष्य हूँ ४८ और उनके उपदेश के आधार पर मैं समयसार की रचना कर रहा हूँ।"४९ उनके ये शब्द इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं कि दिगम्बरमत कुन्दकुन्द के पूर्व से चला आ रहा था। इसलिए मुनि कल्याणविजय जी ने जो उसे आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रवर्तित बतलाया है, वह सर्वथा असत्य है। अपने विषय में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा कहे गये इन वचनों को अमान्य करना मुनि कल्याणविजय जी और उनके अनुगामियों की अनधिकृत चेष्टा है। १०.४. दक्षिण में दिगम्बरपरम्परा श्रुतकेवली भद्रबाहु से पूर्ववर्ती मुनि कल्याणविजय जी ने कुन्दकुन्द के द्वारा सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति न माननेवाले दिगम्बरमत की स्थापना किये जाने की कथा क्यों गढ़ी, यह विचारणीय है। बात यह है कि मुनि जी इस सत्य का अपलाप करना चाहते थे कि भारत में उपर्युक्त सिद्धान्तोंवाला दिगम्बरमत कुन्दकुन्द के पूर्व विद्यमान था। इसलिए उन्होंने यह कथा गढ़ी कि 'जब उत्तरभारत का सचेलाचेलमार्गी यापनीयसंघ दक्षिण में पहुँचा, तब कुन्दकुन्द उसमें दीक्षित हुए और उसी में रहकर उन्होंने भगवान् महावीरप्रणीत जैनसिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त किया। किन्तु आगे चलकर उन्होंने उन सिद्धान्तों में से आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति एवं केवलिभुक्ति को अमान्यकर उनका निषेध करनेवाले ग्रन्थों की रचना की तथा यापनीयमत को छोड़कर दिगम्बरमत की नींव डाली।' (यह कथा इसी प्रकरण के शीर्षक ३ में उद्धृत मुनि जी के उन वचनों से सूचित होती है, जो उन्होंने 'श्रमण भगवान् महावीर' के पृष्ठ ३२७-३२८ पर व्यक्त किये हैं)। ___ मुनि जी की यह कहानी साम्प्रदायिक पक्षपात से प्रेरित है। क्योंकि कुन्दकुन्द की अपने ग्रन्थों में की गयी ये घोषणाएँ कि "मैं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्पराशिष्य हूँ और श्रुतकेवली के उपदेश के आधार पर ही अपने ग्रन्थों की रचना ४८. सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स॥ ६१ ॥ बारसअंगवियाणं चउदसपव्वंगविउलवित्थरणं। सुयणाणिभद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयऊ॥ ६२॥ बोधपाहुड। ४९. वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं॥ १॥ समयसार। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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