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५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र० २
दोनों एक ही परम्परा के नाम हैं? श्वेताम्बरग्रन्थों में यापनीयों का विवरण केवल दो जगह मिलता है, हरिभद्रसूरि की 'ललितविस्तरा' में और उनके ही 'षड्दर्शनसमुच्चय' की गुणरत्नकृत टीका में। दोनों जगह यापनीयों को स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का समर्थक बतलाया गया है। इसके अलावा उनके बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। बोटिकों का विवरण अनेक ग्रन्थों में है, लेकिन उन सब में उन्हें वस्त्रपात्रादि परिग्रह को मूर्च्छा, भय और कषाय का कारण बतलानेवाला एवं एकमात्र जिनकल्प को ही मोक्षमार्ग प्रतिपादित करनेवाला, अत एव स्त्रीमुक्ति एवं केवलिभुक्ति का विरोधी, दिगम्बर कहा गया है। उनको महामिथ्यादृष्टि, सर्वापलापी और सर्वविसंवादी विशेषणों से विभूषित किया गया है, यहाँ तक कि उनके दृष्टिगोचर होने को महान् अपशकुन का कारण बतलाया है। ४१ जब कि यापनीयों को इनमें से एक भी विशेषण नहीं दिया गया, बल्कि उनके स्त्रीमुक्तिपोषक तर्कों को श्वेताम्बरों ने अपने लिए प्रमाणरूप में स्वीकार किया है। क्या इन विवरणों से सूचित होता है कि बोटिक और यापनीय एक ही परम्परा के नाम हैं? इनसे तो यह सूचित होता है कि ये दोनों दिन और रात के समान परस्पर विपरीत परम्पराओं के नाम हैं। जो बोटिक सर्वापलापी हैं अर्थात् श्वेताम्बरसम्प्रदाय के स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यतीर्थिकमुक्ति आदि समस्त मौलिक सिद्धान्तों का निषेध करते हैं, वे स्त्रीमुक्ति आदि श्वेताम्बरसिद्धान्तों का समर्थन करनेवाले यापनीय कैसे हो सकते हैं? इन विवरणों से यह बात समझ में आ जाती है कि श्वेताम्बर साहित्य में बोटिकों और यापनीयों को कहीं भी एक क्यों नहीं कहा गया ? सारे विवरण सूचित करते हैं कि एक हैं ही नहीं, तब उन्हें एक कैसे कहा जा सकता था? डॉक्टर सा० ने बोटिकों और दिगम्बरों के एकत्वसूचक विवरणों को बोटिकों एवं यापनीयों के एकत्व का सूचक मान लिया है। यह स्त्रीत्व के सूचक अंगों को पुरुषत्व के सूचक अंग मान लेने के समान महान् भ्रान्ति से ग्रस्त हो जाने का सूचक है।
डॉक्टर सा० लिखते हैं कि सभी श्वेताम्बराचार्यों ने बोटिकों को भ्रम से दिगम्बर मान लिया है। (जै.ध.या.स./ पृ. ८) । किन्तु जब ये विवरण ही उन्हें दिगम्बर सिद्ध
४९. चक्कयरम्मि भमाडो, भुक्कामारो य पंडुरंगम्मि ।
तच्चिन्नअ रुहिरपडनं, बोडिअमसिये धुवं मरणं ॥ ओघनिर्युक्तिभाष्य ।
अनुवाद - जैन साधु के चातुर्मास हेतु किसी ग्राम, नगर में प्रवेश करते समय यदि कोई चक्रधर भिक्षु सामने मिले, तो साधु को चातुर्मास में भ्रमण करना पड़ेगा, पांडुरंग भिक्षु के मिलने पर भूखों मरना पड़ेगा, बौद्ध भिक्षु के दर्शन होने पर रक्तपात होगा किन्तु बोटिक या अश्वेत भिक्षु मिले तो निश्चित रूप से मरण होगा। (सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ / पृष्ठ २०४ तथा ' श्रमण भगवान् महावीर'/पृ.२७८) ।
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