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अ०२/प्र०२
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ५५
कल्पसूत्र की कल्पलता-व्याख्या में श्री समयसुन्दरगणी ने स्थविरावली का वर्णन करते हुए लिखा है
"धणगिरिशिष्यः सिवभूई ४। शिवभूतिशिष्यः एको बोटकनामाऽभूत्। तस्मात् वीरात् सं. ६०९ वर्षे बोटकमतं जातं दिगम्बरमतमित्यर्थः।" (अष्टम व्याख्यान/पृ.२३५)। __अनुवाद-"धणगिरि का शिष्य शिवभूति था। शिवभूति का एक बोटक नाम का शिष्य था। उससे वीर निर्वाण संवत् ६०९ में बोटकमत अर्थात् दिगम्बरमत की उत्पत्ति हुई।" __यहाँ यद्यपि शिवभूति की बजाय उसके एक बोटक नामक शिष्य से बोटकमत की उत्पत्ति बतलाई गई है, तथापि बोटकमत को दिगम्बरमत कहा गया है।
रत्नर्षि नामक श्वेताम्बर विद्वान् ने भगवद्वाग्वादिनी नामक ग्रन्थ में "विक्रमादूतुखयुगाब्दे ४०६ देवनन्दी, ततो गुणनन्दिकुमारनन्दिलोकचन्द्रानन्तरं मुनिरैयुगाब्दे प्रथमः प्रभाचन्द्र इति बौटिके" तथा "यत्तु देवनन्दिबोटिकं" पूज्यपाद इति ---"४० इन उक्तियों में पूज्यपाद देवनन्दी, प्रभाचन्द्र आदि दिगम्बराचार्यों को बोटिक कहा है।
इस प्रकार दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदायों के बीच रहनेवाले इन आचार्यों ने बोटिकों और यापनीयों में पूर्व और पश्चिम के समान अत्यन्त वैपरीत्य प्रदर्शित किया है। जहाँ बोटिकों को महामिथ्यादृष्टि, सर्वापलापी और सर्वविसंवादी कहा है, वहाँ यापनीयों को अपने स्त्रीमुक्ति-सिद्धान्त के समर्थकरूप में वर्णित किया है। दोनों सम्प्रदायों से भली भाँति परिचित इन आचार्यों के द्वारा इन दोनों में इतना वैपरीत्य बतलाये जाने पर भी पं० मालवणिया और डॉ० सागरमल जी ने इन्हें एक माना है, यह आश्चर्य की बात है।
आश्चर्य पर आश्चर्य यह है कि डॉ० सागरमल जी एक ओर तो यह स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बरसाहित्य में ऐसा स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि बोटिक और यापनीय एक हैं, दूसरी ओर यह भी कहते हैं कि श्वेताम्बरसाहित्य में इनके बारे में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है, उसे देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि दोनों शब्द एक ही परम्परा के सूचक हैं। (जै.ध.या.स./ पृ.८)।
श्वेताम्बरसाहित्य में बोटिकों और यापनीयों से सम्बद्ध जो विवरण है, वह ऊपर प्रस्तुत किया जा चुका है। क्या उसे देखने से लगता है कि बोटिक और यापनीय ४०. पं. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास/ द्वि.सं./ पृ.५३-५४ ।
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