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अ०२/प्र०२
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ५३ जारिसियं गुरुलिगं सीसेण वि तारिसेण होयव्वं।
न हि होइ बुद्धसीसो सेयवडो नग्गखवणो वा॥ अर्थात् जैसा गुरु का लिंग (वेश) होता है, वैसा ही शिष्य का भी होना चाहिए, क्योंकि बुद्ध का शिष्य श्वेतवस्त्रधारी या नग्नक्षपणक नहीं हो सकता।
इस गाथा में 'नग्नक्षपणक' शब्द का प्रयोग है, जिसे श्वेताम्बराचार्यों ने ही 'दिगम्बर' अर्थ का वाचक बतलाया है-'क्षपणको दिगम्बरः।३९
उपाध्याय धर्मसागरजी ने अपने 'प्रवचनपरीक्षा' नामक ग्रन्थ के पूर्वभाग-द्वितीयविश्राम में बोटिक मत की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है
तत्थ य खमणो रमणो दुग्गइवणिआइ जेण वणिआए। न मुणइ मुत्तिं भुत्तिं केवलिणो कवलभोइस्स॥ ३॥ तस्सुम्पत्ति नवहिअ-छव्वास-सएहिं वीरनिव्वाणा।
रहवीरपुरे कंबलकोहाओ सहस्समल्लाओ॥ ४॥ अनुवाद-"क्षपणक (बोटिक) स्त्री की मुक्ति तथा केवली का कवलाहारी होना नहीं मानते, इसलिए वे नारकादि-दुर्गतिरूपी स्त्री के पति हैं। इनके बोटिकमत की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद रथवीरपुर नगर में कम्बलक्रोधी (रत्नकम्बल के निमित्त से जिसे क्रोध आ गया था) सहस्रमल्ल (शिवभूति) नामक पुरुष से हुई थी।"
प्रवचनपरीक्षाकार उक्त गाथाओं की वृत्ति में लिखते हैं
"क्षपणको बोटिको---। बोटिको वनितायाः मुक्तिं न मन्यते। --- तथा कवलभोजिनः तथाविधवेदनीयकर्मोदयात् क्षुद्वेदनोपशमाय कवलाहारं ग्रहानस्य केवलिन:---भोजनं, केवलिनां कवलाहारो न भवतीत्युपदेशेन प्रतिषेधयति।" (प्रव.परी./वृत्ति./ गा.३ / पृ.६६)।
अनुवाद-"क्षपणक बोटिक को कहते हैं। बोटिक स्त्री की मुक्ति नहीं मानते तथा क्षुधा-वेदनीयकर्म के उदय से उत्पन्न क्षुधा को शान्त करने के लिए कवलाहार ग्रहण करनेवाले केवली के विषय में कहते हैं कि वे कवलाहार नहीं करते।"
"तस्य बोटिकस्योत्पत्तिः वीरनिर्वाणात् नवाधिकषट्शतवषैः ६०९ र्व्यतीत रथवीरनगरे जातेत्युत्पत्तिकालः प्रदर्शितः। कस्माजातेत्याह---राजमान्य-सहस्र
३९. प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १ / १ / ८/ पृ.१९ ।
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