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________________ ५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२ / प्र० २ अनुवाद - "दिगम्बर नग्न रहते हैं तथा अपने पाणिपात्र में ही आहारजल ग्रहण करते हैं। उनके चार भेद हैं : काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुरसंघ और गोप्यसंघ । काष्ठासंघ में चमरीगाय के बालों की पिच्छिका रखी जाती है। मूलसंघ में मोरपंखों की पिच्छिका ली जाती है। माथुरसंघ में किसी भी प्रकार की पीछी का प्रयोग नहीं किया जाता । गोप्यसंघवाले मुनि मयूरपिच्छिका ग्रहण करते हैं। पहले के तीन संघों के साधु नमस्कार किये जाने पर ' धर्मवृद्धि हो' यह आशीर्वाद देते हैं । वे स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति और सद्व्रती होते हुए भी वस्त्रधारी की मुक्ति नहीं मानते । किन्तु गोप्यसंघवाले साधु नमस्कार किये जाने पर 'धर्मलाभ हो' यह आशीर्वाद देते हैं तथा स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति मानते हैं । गोप्यों को यापनीय भी कहते हैं । " गुणरत्न के इस कथन स्पष्ट होता है कि यापनीय श्वेताम्बरों के समान स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति तथा गृहस्थमुक्ति मानते थे, इसलिए श्वेताम्बरों के साथ उनका प्रभूततर संवाद (अत्यधिक विचारसाम्य) था, फलस्वरूप प्रभूततर विसंवादी बोटिकों से भिन्न थे। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि गुणरत्न ने यापनीयों का एक अन्य नाम 'गोप्य' तो बतलाया है, किन्तु 'बोटिक' नहीं बतलाया । प्रस्तुत प्रसंग में बोटिकों के लिए प्रयुक्त महामिथ्यादृष्टि, सर्वविसंवादी और सर्वापलापी विशेषण ध्यान देने योग्य हैं। ये विशेषण सूचित करते हैं कि बोटिक श्वेताम्बरों की स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सभी मौलिक मान्यताओं का निषेध करते थे, जो यापनीयों के द्वारा नहीं किया जाता था, केवल दिगम्बरों के द्वारा किया जाता था । अतः बोटिकों से तात्पर्य दिगम्बरों से ही था । ६.३. प्राचीन श्वेताम्बरग्रन्थों में बोटिकों की 'दिगम्बर' संज्ञा इसीलिए सभी प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने बोटिकों को 'दिगम्बर' शब्द से अभिहित किया है और स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि का विरोधी बतलाया है । यथा १. श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने विशेषावश्यकभाष्य की वृत्ति में बोटिककथा से शिवभूति के विषय में दो निष्कर्ष निकाले हैं : पहला यह कि वह साधु के लिए वस्त्रपात्रादि समस्त बाह्यपरिग्रह का विरोधी था, दूसरा यह कि वह स्त्रीमुक्ति का समर्थक नहीं था। इसलिए हेमचन्द्रसूरि ने उत्तराध्ययन की बृहट्टीका से वस्त्र की आवश्यकता और स्त्रीमुक्ति को सिद्ध करनेवाले हेतुओं का निर्देश किया है और कहा है कि जिन्हें विस्तार से जानने की इच्छा है, उन्हें उत्तराध्ययन की बृहट्टीका देखना चाहिए। वे हेतु इस प्रकार हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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