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अ०२/प्र०२
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ४९ यह हरिभद्रसूरिकृत ललितविस्तरा के स्त्रीमुक्ति-प्रकरण की तीसरी गाथा है। इसकी व्याख्या करते हुए, हरिभद्रसूरि लिखते हैं
"पुरुषग्रहणं पुरुषोत्तमधर्मप्रतिपादनार्थम् , स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो भवतीति ज्ञापनार्थम्।(स्त्रीमुक्तौ यापनीयतन्त्रप्रमाणम्)-यथोक्तं यापनीयतन्त्रे ‘णो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि अभव्वा, ण यावि दंसणविरोहिणी, णो अमाणुसा, णो अणारिउम्पत्ति, णो असंखेजाउया, णो अइकूरमई, णो ण उवसन्तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदी, णो ण ववसायवजिया, णो अपुव्वकरणविरोहिणी (प्र.---विराहिणी), णो णवंगुणठाण-रहिया, णो अजोग्गा लद्धीए, णो अकल्लाणभायणं ति कहं न उत्तमधम्मसाहिग ति।" (पृ. ४०१-४०२)।।
अनुवाद-"इस गाथा में 'पुरुष' (नर) शब्द का ग्रहण यह बतलाने के लिए किया गया है कि धर्म पुरुषप्रधान है (धर्म में पुरुषों का स्थान प्रमुख है)। 'स्त्री' (नारी) शब्द का ग्रहण यह सूचित करने के लिए किया गया है कि स्त्रियाँ भी उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। (स्त्रीमुक्ति के विषय में यापनीयशास्त्र का प्रमाण)-जैसा कि यापनीयशास्त्र में कहा गया है, स्त्री अजीव नहीं है, अभव्य भी नहीं है, दर्शन-विरोधी भी नहीं है, अमनुष्य नहीं है, अनार्यदेशोत्पन्न नहीं है, असंख्यवर्षायुष्क नहीं है, अतिक्रूरहृदया नहीं है, उपशान्तमोह न हो सके, ऐसी नहीं है, शुद्धाचाररहित नहीं है, अशुद्धशरीरवाली नहीं है, परलोकहितकर-प्रवृत्ति से शून्य नहीं है, अपूर्वकरणविरोधिनी नहीं है, नौ गुणस्थानों (छठवें से चौदहवें तक) से रहित नहीं है, लब्धि के अयोग्य नहीं है, अकल्याण की पात्र नहीं है, तब उत्तम धर्म की साधक क्यों नही हो सकती?" ___हरिभद्रसूरिकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' के टीकाकार गुणरत्न (१४ वीं शती ई०) ने भी यापनीयों के मत को श्वेताम्बरमत से प्रायः अविसंवादी (मेल रखनेवाला) प्रतिपादित किया है। यथा
"दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च। ते चतुर्धा काष्ठासङ्घ-मूलसङ्घमाथुर-सङ्घगोप्यसङ्घ-भेदात्। काष्ठासङ्घ चमरीबालैः पिच्छिका, मूलसङ्के मायूरपिच्छैः पिच्छिका, माथुरसङ्के मूलतोऽपि पिच्छिका नादृता, गोप्या मायूरपिच्छिका। आद्यस्त्रयोऽपि सङ्घा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्तिं, केवलिनां भुक्तिं, सव्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते। गोप्यास्तु वन्धमाना धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्तिं केवलिनां भुक्तिं च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते।" (त. र. दी./ षड्दर्शन-समुच्चय / अधिकार ४ / पृ.१६१)।
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