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४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०२ उस समय एक-दूसरे से और उनकी धार्मिक मान्यताओं से सुपरिचित थे। अतः उपर्युक्त श्वेताम्बराचार्य अपने समय में विद्यमान प्रसिद्ध यापनीयसम्प्रदाय से अवश्य ही सुपरिचित रहे होंगे। तथापि उन्होंने बोटिकों को न तो कहीं 'यापनीय' शब्द से वर्णित किया है, न ही यापनीयों के लिये महामिथ्यादृष्टि, सर्वापलापी, प्रभूततरविसंवादी तथा निह्नव आदि विशेषणों का प्रयोग किया है। इससे सिद्ध है कि यापनीयों के प्रति उनमें साधर्मीवत् आदरभाव था, क्योंकि स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति आदि दार्शनिक मान्यताओं की दृष्टि से उनमें परस्पर अत्यधिक समानता थी। यह श्री हरिभद्रसूरि की व्याख्याओं से एकदम स्पष्ट है। उन्होंने अपने व्याख्याग्रन्थों में बोटिकों और यापनीयों, दोनों का उल्लेख किया है और बोटिकों को तो निह्नव, मिथ्यादृष्टि तथा प्रभूतविसंवादी कहा है, किन्तु यापनीयों को अपने स्त्रीमुक्तिसिद्धान्त का समर्थक बतलाया है, और इस सिद्धान्त को पुष्ट करने वाले अनेक तर्क यापनीयतन्त्र से ग्रहण कर अपनी स्त्रीमुक्ति-मान्यता को उन्होंने प्रमाणित किया है। इस तरह हरिभद्रसूरि ने बोटिकों और यापनीयों को न केवल परस्परभिन्न दो सम्प्रदायों के रूप में वर्णित किया है, अपितु उनमें पूर्व और पश्चिम दिशाओं के समान अत्यन्त वैपरीत्य भी प्रदर्शित किया है। आवश्यकनियुक्ति (भा.१) की 'सत्तेया दिट्ठीओ' इस ७८६वीं गाथा की व्याख्या करते हुए हरिभद्रसूरि लिखते हैं-"सप्तैता दृष्टयः, बोटिकास्तु मिथ्यादृष्टय एवेति न तद्विचारः।" अर्थात् बहुरत, जीवप्रादेशिक आदि ये सात निह्नव तो दर्शन हैं, किन्तु बोटिकमत मिथ्यादर्शन ही है। इसलिए उसका इस गाथा में विचार नहीं किया गया है। तत्पश्चात् वे 'छव्वास-सयाइं नवुत्तराई' इस आवश्यकमूलभाष्य की गाथा (१४५) की प्रस्तावना में कहते हैं-"भणिताश्च देशविसंवादिनो निह्नवाः साम्प्रतमनेनैव प्रस्तावेन प्रभूतविसंवादिनो बोटिका भण्यन्ते।"३५ अर्थात् देशविसंवादी (अल्प मतभेदवाले) निह्नवों का वर्णन किया जा चुका है। अब इसी प्रसंग में प्रभूतविसंवादी बोटिकों का कथन किया जा रहा है।
इन उद्धरणों में हरिभद्रसूरि ने बोटिकों को मिथ्यादृष्टि एवं प्रभूतविसंवादी (अत्यन्तविरुद्धमतावलम्बी) कहा है, किन्तु निम्न वक्तव्य में यापनीयों को अपने स्त्रीमुक्तिसिद्धान्त का समर्थक बतलाकर सम्यग्दृष्टि एवं अविसंवादी (समानमतावलम्बी) सिद्ध किया है
एक्को वि णमोक्कारो जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स।
संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा॥ ३॥ अनुवाद-"जिनवरों में श्रेष्ठ वर्द्धमान स्वामी को किया गया एक भी नमस्कार पुरुष और स्त्री को संसार-सागर से पार लगा देता है।"
३५. हारिभद्रीयवृत्ति/पातनिका/आवश्यकनियुक्ति/भा.१/ आवश्यकमूलभाष्य/गाथा १४५/पृ. २१५ ।
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