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४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र० २
नाम से मिथ्यामत चलानेवालों ३० के आठ उत्पत्तिस्थानों का वर्णन किया है, जिनमें आठवाँ स्थान रहवीरपुर ( रथवीरपुर ) है । आवश्यकसूत्र के मूलभाष्यकर्त्ता ने इस रथवीरपुर नगर में 'बोटिक' नामक आठवें निह्नव की उत्पत्ति बतलाई है । ३१ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण (छठी-सातवीं शताब्दी ई०) ने विशेषावश्यकभाष्य में, जिनदासगणी महत्तर ( सातवीं शती० ई०) ने आवश्यकचूर्णि में, मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरि ( १२वीं शती ई०) ३२ ने विशेषावश्यकभाष्य की वृत्ति में तथा श्री हरिभद्रसूरि (८वीं शती ई०) ने आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति में भी ऐसा ही कहा है।
इनमें से सभी आचार्यों ने बोटिकों को निह्नव कहा है तथा आवश्यकमूलभाष्य के कर्त्ता ने उनके मत को मिथ्यादर्शन बतलाया है
ऊहा पण्णत्तं बोडियसिवभूइउत्तराहि इमं । मिच्छादंसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पण्णं ॥
३०. क — " निह्नव इति कोऽर्थ : ? स्वप्रपञ्चतस्तीर्थकरभाषितं निह्नुतेऽर्थम् इति निह्नवो मिथ्यादृष्टिः । उक्तं च
सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः, सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥"
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हरिभद्रयवृत्ति / आवश्यकनिर्युक्ति / गा. ७७८/ पृ.२०८ । ख - " निह्नव मिथ्यादृष्टि का ही एक प्रकार है । - |--- सामान्य मिथ्यात्वी और निह्नव में यह भेद है कि सामान्य मिथ्यात्वी जिनप्रवचन को ही नहीं मानता अथवा मिथ्या मानता है, जब कि निह्नव उसके किसी एक पक्ष का अपने अभिनिवेश के कारण परम्परा से विरुद्ध अर्थ करता है तथा शेष पक्षों को परम्परा के अनुसार ही स्वीकार करता है । इस प्रकार निह्नव वास्तव में जैनपरम्परा के भीतर ही एक नया सम्प्रदाय खड़ा कर देता है।" (डॉ० मोहनलाल मेहता : जैन साहित्य का बृहद् इतिहास / भाग ३ / पृ. १८९) । किन्तु मलधारी श्री हेमचन्द्र सूरि ने आठ निह्नवों में से सात को तो देशविसंवादी (जिनवचन के एकदेश की विपरीत व्याख्या करनेवाला) कहा है, जब कि 'बोटिक' (दिगम्बर) नामक आठवें निह्नवों को सर्वविसंवादी ( सम्पूर्ण जिनोपदेश की विपरीत व्याख्या करनेवाला) बतलाया है । (हेम. वृत्ति / पातनिका / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५५० ) ।
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३१. क - सावत्थी उसभपुरं सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं ।
पुरिमंतरंजि दसपुर रहवीरपुरं च नगराई ॥ ७८१ ॥ आवश्यकनियुक्ति । ख - छव्वास - सयाइं नवुत्तराई तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे
तो
समुप्पण्णा ॥ १४५ ॥
३२. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ.५३५ ।
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आवश्यकसूत्र - मूलभाष्य ।
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