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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ४५ होने का प्रमाण है। अतः माननीय मालवणिया जी और डॉ० सागरमल जी की यह मान्यता कि "शिवभूति ने केवल वस्त्रपात्रादि-परिग्रहवाले स्थविरकल्प का निषेध किया था, स्त्रीमुक्ति का नहीं, इसलिए बोटिकों को दिगम्बर नहीं कहा जा सकता" सत्य का घोर अपलाप है। शिवभूति की मान्यताएँ उसे दिगम्बरमतानुगामी सिद्ध करती हैं, अतः सिद्ध है कि शिवभूति के यापनीयमत-प्रवर्तक होने की कथा मनगढंत है, यथार्थ नहीं। बोटिक और यापनीय परस्परविरुद्ध परम्पराएँ ६.१. बोटिकमत और यापनीयमत में घोर वैषम्य बोटिककथा में वर्णित शिवभूति के विचारों और यापनीयमत के सिद्धान्तों की तुलना करने पर स्पष्ट होता है कि बोटिकमत और यापनीयमत परस्परविरुद्ध परम्पराएँ थीं। तुलना नीचे की जा रही है १. बोटिकों को आपवादिक सचेल मार्ग स्वीकार्य नहीं था, यापनीयों को था। २. बोटिकों को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं थी, यापनीयों को थी। ३. बोटिक केवल जिनेन्द्रलिंगवत् जिनकल्प को ही मुक्तिमार्ग मानते थे, इसलिए उन्हें गृहस्थमुक्ति और अन्यतीर्थिकमुक्ति स्वीकार्य नहीं थी, जबकि यापनीयों को थी। ४. बोटिक केवलिभुक्ति नहीं मानते थे, यापनीय मानते थे। ६.२. श्वेताम्बरग्रन्थों में बोटिकों की निन्दा, यापनीयों की प्रशंसा बोटिकों को श्वेताम्बरग्रन्थों में निह्नव, महामिथ्यादृष्टि, सर्वापलापी, प्रभूततरविसंवादी तथा सर्वविसंवादी कहा गया है, जिससे स्पष्ट है कि वे श्वेताम्बरपरम्परा के आगमों को नहीं मानते थे, जब कि यापनीय मानते थे, इसलिए उन्हें न तो किसी श्वेताम्बरग्रन्थ में निह्नव कहा गया है, न मिथ्यादृष्टि, न विसंवादी। सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, अन्यतीर्थिकमुक्ति एवं केवलीभुक्ति को लेकर उनका श्वेताम्बरों के साथ संवाद था। यापनीयों ने जो स्त्रीमुक्ति के समर्थन में तर्क दिये हैं, उन्हें श्वेताम्बर-आचार्यों ने प्रमाणरूप में स्वीकार किया है। इन तथ्यों पर एक दृष्टि डालें सर्वप्रथम भद्रबाहु-द्वितीय (विक्रम सं० ५६२, ई० सन् ५०५ )२९ ने 'आवश्यकनियुक्ति' में आठ निह्नवों अर्थात् तीर्थंकरवचन की विपरीत व्याख्या करनेवालों एवं उनके २९. श्री देवेन्द्र मुनि : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ.४३८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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