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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ४३ के लिए जिनकल्प पर रोक लगायी गयी है-"अचेलकत्वप्रतिषेधेन आर्याणां जिनकल्पोऽपि अनेनैव सूत्रेण निवारितो मन्तव्यः।" इस प्रकार आर्यिकाओं के लिए जिनकल्प (अचेलत्व) का निषेध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में है। और शिवभूति ने स्थविरकल्प को सपरिग्रह होने के कारण मोक्ष में बाधक बतलाया है, इससे यह स्पष्ट है कि उसने स्त्री, गृहस्थ और परतीर्थिक इन सभी वस्त्रधारियों के मोक्ष का निषेध किया है। अतः पं० मालवणिया का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि बोटिक शिवभूति केवल वस्त्रपात्र का विरोधी था, स्त्रीमुक्ति का नहीं।२७ एकमात्र जिनलिंग को ही मुक्ति का मार्ग स्वीकार करने से स्त्रीमुक्ति का निषेध स्वतः हो जाता है। और चूँकि शिवभूति स्त्रीमुक्ति का समर्थक नहीं था, अतः सिद्ध है कि वह दिगम्बरमत का अनुयायी था। यह तार्किक निर्णय महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि इससे यह भी सिद्ध होता है कि चूंकि श्वेताम्बरमत में स्त्रीमुक्ति मान्य है, इसलिए उसमें पुरुषों के लिए नग्नता का विधान अपवादरूप से भी नहीं हो सकता। अन्यथा वहाँ भी सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों के लिए मुक्ति संभव हो जाने से नग्नता केवल कष्ट का ही कारण सिद्ध होगी। ५.५. शिवभूति को श्वेताम्बरागम मान्य नहीं शिवभूति अपने गुरु आर्यकृष्ण के समक्ष स्थविरकल्प को अमान्य कर एकमात्र जिनलिंग को ग्राह्य बतलाता है। इस प्रकार वह गुरु द्वारा मान्य आगमों को अमान्य कर देता है। फिर गुरु उसके मतों का खण्डन करने के लिए आगमवचन प्रमाणरूप में उपस्थित करते हैं। उन सबको वह अस्वीकत कर देता है। यथा गुरु कहते हैं-"वस्त्रपात्रादि धर्मोपकरणों का परिग्रह, परिग्रह नहीं है, अपितु उनमें मूर्छा करना परिग्रह है।" शिवभूति इसे स्वीकार नहीं करता। गुरु कहते हैं- "यदि वस्त्रपात्रादि उपधि मूर्छा का कारण होने से त्याज्य हैं, तो किसी मुनि को देह में भी मूर्छा हो सकती है, तब देह का भी परित्याग जरूरी हो जायेगा। यदि मूर्छा होने पर भी देह का परित्याग आवश्यक नहीं है, तो वस्त्रादि उपधि में मूर्छा होने पर वस्त्रादि का भी त्याग आवश्यक कैसे हो सकता है?" शिवभूति गुरु के इस तर्क को स्वीकार नहीं करता। गुरु कहते हैं - "जिनेन्द्र भी सर्वथा अचेलक नहीं थे, क्योंकि आगम में कहा गया है कि सभी तीर्थंकर एक वस्त्र लेकर प्रव्रजित हुए थे।" शिवभूति इसे भी नहीं मानता। २७. 'क्या बोटिक दिगम्बर हैं?' Aspects of Jainology, vol. II, pp. 70-71. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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