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४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र० २
५.४.२. स्त्रीमुक्ति के लिए स्थान नहीं-यतः शिवभूति स्त्रीशरीर को मोक्षसाधना के योग्य नहीं मानता, इसलिए उसके मत में स्त्रीमुक्ति के लिए स्थान नहीं था । श्वेताम्बराचार्यों ने भी उसे अपने तर्क से स्त्रीमुक्ति का निषेधक सिद्ध किया है। श्वेताम्बरग्रन्थ 'प्रवचनपरीक्षा' के कर्त्ता ने शिवभूति के स्त्रीमुक्ति - निषेधक होने का निर्णय निम्नलिखित तर्क के आधार पर किया है
" अथ यदा शिवभूतिना नग्नभावोऽभ्युपगतस्तदानीमुत्तरानाम्न्याः स्वभगिन्या वस्त्रपरिधानमनुज्ञातम् । एवं च सति यदि स्त्रीणां मुक्तिं प्ररूपयति तदा सवस्त्र-निर्वस्त्रयोरविशेषापत्त्या स्वकीयनग्नभावस्य केवलं क्लेशतैवापद्येतेति विचिन्त्य स्त्रीणां मुक्तिर्नि - षिद्धा ।" ( प्रव. परी/ पातनिका / १/२/१९/पृ. ८२ ) ।
अनुवाद - " जिस समय शिवभूति ने नग्नत्व स्वीकार किया, उस समय उसने अपनी बहिन को वस्त्र पहनने की सलाह दी। अब यदि वह स्त्रियों के लिए मुक्ति का विधान करता है, सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों को मुक्ति संभव हो जाने से स्वयं का नग्न रहना केवल क्लेश का ही कारण सिद्ध होगा, ऐसा सोचकर उसने स्त्रियों के लिए मुक्ति का निषेध कर दिया । "
यह श्वेताम्बर - मताश्रित तार्किक निर्णय भी स्पष्ट कर देता है कि बोटिक शिवभूति स्त्रीमुक्ति का समर्थक हो ही नहीं सकता था । इसी तर्क के आधार पर मुनि कल्याणविजय जी ने कुन्दकुन्द के स्त्रीमुक्तिनिषेध एवं केवलिभुक्तिनिषेध का औचित्य प्रतिपादित किया है । पूर्वोद्धृत (शी. ३) वक्तव्य में वे कहते हैं
" छठी सदी के विद्वान आचार्य कुन्दकुन्द देवनन्दी वगैरह ने--- अपने लिए आचार, विचार और दर्शनविषयक स्वतन्त्र साहित्य की रचना की, जिसमें वस्त्रपात्र रखने का एकान्तरूप से निषेध किया । यद्यपि इस ऐकान्तिक निषेध के कारण उन्हें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का भी निषेध करना पड़ा, क्योंकि स्त्रियों को सर्वथा अचेलक मानना अनुचित था और वस्त्रसहित रहते हुए उनकी मुक्ति मान लेने पर अपने वस्त्रधारी प्रतिस्पर्द्धियों की मुक्ति का निषेध करना असम्भव था । इसी तरह केवली का कवलाहार मानने पर उसके लाने के लिए पात्र भी मानना पड़ता और इस दशा में पात्रधारी स्थविरों का खण्डन नहीं करने पाते।” (श्र.भ.म. / पृ.३०२-३०५ ) ।
श्वेताम्बरशास्त्रों में स्त्री के लिए जिनकल्प का निषेध किया गया है— 'जिणकप्पिया इत्थी न होइ।' ('जैन साहित्य में विकार / पृ. ४७ पर उद्धृत ) । बृहत्कल्पसूत्र में कहा गया है - 'नो कप्पड़ निग्गंथीए अचेलियाए हुंतए' (५ / १६) । अर्थात् स्त्री को अचेल होने की अनुमति नहीं है । इस सूत्र की श्री संघदासगणिकृत भाष्यगाथा (५९३५) के वृत्तिकार श्री क्षेमकीर्ति लिखते हैं कि इस सूत्र में अचेलकत्व का प्रतिषेध कर आर्यिकाओं
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