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अ०२/प्र०२
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ४१ मुनिकल्याणविजय जी और उनके अनुयायी विद्वानों का यह कथन सर्वथा कपोलकल्पित है कि शिवभूति ने श्वेताम्बरीय जिनकल्प का पुनरुद्धार किया था। वस्तुतः वह श्वेताम्बरमत के विपरीत मत-लिंग-चर्यावाला दिगम्बर जैन मुनि हो गया था। ५.४. सचेलकता के निषेध से स्त्रीमुक्ति का निषेध
५.४.१. स्त्रीदीक्षा नहीं दी गई-यह ध्यान देने योग्य है कि शिवभूति अपनी बहिन उत्तरा को स्वयं दीक्षा नहीं देता। उत्तरा अपने भाई को नग्न देखकर खुद ही नग्न हो जाती है और गणिका द्वारा वस्त्र पहनाये जाने पर खुद ही वस्त्र पहन लेती है। जब वह शिवभूति को गणिका द्वारा वस्त्र पहनाये जाने की बात बतलाती है, तब शिवभूति केवल यह कहता है कि तुम ऐसे (सवस्त्र) ही रहो, यह नहीं कहता कि ऐसे (सवस्त्र) रहते हुए ही तुम मुक्त हो जाओगी। शिवभूति की समझ में आ जाता है कि स्त्रियों का वस्त्रत्याग उचित नहीं है, क्योंकि नग्न स्त्री बीभत्स और निर्लज्ज लगती है। नग्न रहने पर मासिकधर्म आदि के समय जुगुप्सोत्पादक हो जायेगी तथा दर्शक पुरुषों के लिए कामविकार का निमित्त बनेगी, जो स्वयं उसके लिए संकट का कारण होगा। इन अनर्थों को देखकर उसे स्त्रियों का वस्त्रत्याग अनुचित प्रतीत हुआ। तब उसके अनुभव में आया कि स्त्री की शारीरिक संरचना वस्त्रत्याग के योग्य नहीं है और वस्त्रग्रहण परिग्रह होने से हिंसा, कषाय, मूर्छा आदि दोषों का हेतु है, अतः मोक्ष में बाधक है। इसके अतिरिक्त स्त्रीशरीर में सदा सम्मूर्छन जीवों की उत्पत्ति
और विनाश होता रहता है, वह भी हिंसा का कारण है। इस अनुभव से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि स्त्रीशरीर मोक्षसाधना के योग्य नहीं हैं। इसीलिए उसने आगे चलकर उत्तरा को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं किया, केवल कौण्डिन्य और कोट्टवीर नामक दो पुरुषों को दीक्षा दी। उन्हीं से उसके नवीन बोटिकसम्प्रदाय का आरंभ हुआ।
वस्त्र धारण करने के बाद उत्तरा श्राविका की स्थिति में रही या आर्यिका की, इसका संकेत कथा में नहीं है। किन्तु वस्त्रधारण का दोनों में से किसी भी स्थिति के साथ विरोध नहीं है, क्योंकि दिगम्बरमत में आर्यिका को सवस्त्र रहने की ही आज्ञा है, केवल स्त्रीपर्याय से मोक्ष का विधान नहीं है। इसलिए पं० मालवणिया एवं डॉ० सागरमलजी के इस फलितार्थ में कोई दोष नहीं है कि शिवभूति के सम्प्रदाय में साध्वियाँ सवस्त्र रहती थीं, (जै.ध.या.स./पृ.९)। किन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना युक्तिसंगत नहीं है कि शिवभूति को स्त्रीमुक्ति मान्य थी। वह अपने कथित नवीन सम्प्रदाय में अपनी बहिन उत्तरा को दीक्षित नहीं करता, केवल दो पुरुषों को दीक्षा देता है, इससे स्पष्ट है कि वह स्त्री को मुक्ति के योग्य नहीं मानता था, जो उसके दिगम्बरमत के अनुयायी होने का प्रमाण है।
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