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________________ ४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०२ उपदेश मिले की मोक्षमार्ग सवस्त्र ही है। जब वह वस्त्र गिर जाता है, तभी वे अचेलक होते हैं।२३ तथा जिनकल्पिक साधु भी सर्वथा अचेल नहीं होते। सर्वोच्च जिनकल्पिक साधु को भी मुखवस्त्रिका एवं वस्त्रनिर्मित रजोहरण धारण करना अनिवार्य है। अन्य जिनकल्पिक तो एक, दो या तीन प्रावरण भी रखते हैं।"२४ गुरु अन्त में कहते हैं-"यदि फिर भी तुम यही समझते हो कि 'अरहन्त सर्वथा अचेल होते हैं अतः मैं भी अचेल होऊँगा' तो यह जिनाज्ञा का उल्लंघन होगा, क्योंकि जिनेन्द्र ने उपदेश दिया है कि जो अनुपम धृति और संहनन आदि अतिशय से रहित हैं, उन्हें अचेल नहीं होना चाहिए। तुम इस अतिशय से रहित हो, अतः यदि तुम्हारी जिनवचन में श्रद्धा है, तो तुम्हें अचेल होने का विचार छोड़ देना चाहिए, क्योंकि जिनाज्ञा का उल्लंघन करनेवाले का कल्याण नहीं होता।"२५ जिनभद्रगणी कहते हैं कि गुरु के द्वारा इस प्रकार अनेकशः समझाये जाने पर भी शिवभूति ने उनकी एक भी बात नहीं मानी और मिथ्यात्व के वशीभूत होकर जिनमत में अश्रद्धा करता हुआ वस्त्र छोड़ कर चला गया।२६ यहाँ 'जिनमत में अश्रद्धा करता हुआ' इन वचनों से स्पष्ट है कि शिवभूति को श्वेताम्बरीय जिनकल्प और स्थविरकल्प में श्रद्धा नहीं थी और 'वस्त्र छोड़कर चला गया' इस कथन से साफ है कि उसने चोलपट्ट, कम्बल आदि के साथ मुखवस्त्रिका, रजोहरण आदि भी छोड़ दिये। इस तरह उसने श्वेताम्बर जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक साधुओं के लिंग से सर्वथा भिन्न लिंग धारण किया था, जो दिगम्बरमुनि का लिंग था। इसकी पुष्टि श्री जिनभद्रगणी के निम्नलिखित कथन से होती है-"भिन्न-मय-लिंग-चरिया मिच्छादिट्टि त्ति बोडियाऽभिमया।" ( २६२० / विशे. भा.) अर्थात् बोटिक (शिवभूति और उस के अनुयायी) भिन्न मत, भिन्न लिंग (वेश) और भिन्न चर्यावाले होने के कारण मिथ्यादृष्टि माने गये हैं। यहाँ भिन्नलिंग शब्द उच्चस्वर में घोषणा करता है कि बोटिकों के द्वारा अपनाया गया लिंग श्वेताम्बरमत में मान्य जिनकल्पी साधुओं के लिंग से भिन्न था, अतः २३. तह वि गहिएगवत्था सवत्थतित्थोवएसणत्थं ति।। ___अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुएऽचेलया हुंति॥ २५८३॥ विशेषावश्यकभाष्य। २४. जिणकप्पियादओ पुण सोवहओ सव्वकालमेगंतो। उवगरणमाणमेसिं पुरिसाविक्खाए बहुभेयं ॥ २५८४ ॥ विशेषावश्यकभाष्य। २५. अरहंता जमचेला तेणाचेलत्तणं जइ मयं ते। __ तो तव्वयणाउ च्चिय निरतिसओ होहि माऽचेला॥ २५८५॥ विशेषावश्यकभाष्य। २६. इय पण्णविओ वि बहुं सो मिच्छत्तोदयाकुलियभावो। जिणमयमसद्दहंतो छड्डियवत्थो समुज्जाओ॥ २६०६॥ विशेषावश्यकभाष्य। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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