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________________ अ०२/प्र०२ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ३९ है-"अचेलकाश्च जिनेन्द्राः। अतोऽचेलतैव सुन्दरेति।" (हेम.वृत्ति । विशे.भा. / गा. २५५१-५२)। यहाँ सुन्दर शब्द सम्यक् अर्थ का वाचक है। सम्यक् का अर्थ है समीचीन । समीचीन मार्ग ही प्रामाणिक होता है। अतः उक्त वाक्य से यह स्पष्ट किया गया है कि मोक्ष के जिस मार्ग को जिनेन्द्रों ने अपनाया था, उसी का वे दूसरों के लिए उपदेश दे सकते हैं। अत: जिनेन्द्रों द्वारा अपनाया गया अचेललिंग ही प्रामाणिक हो सकता है, अन्य नहीं। शिवभूति के इन वचनों से दिगम्बरमत ही प्रस्फुटित होता है। ५.२.३. श्रुत में अचेलत्व का ही उपदेश-शिवभूति इतने से ही सन्तुष्ट नहीं होता। वह अचेलकता को ही मोक्ष का एकमात्र प्रामाणिक मार्ग सिद्ध करने के लिए श्रुत को भी प्रमाणरूप में उपस्थित करता है। वह कहता है-"अत एव श्रुते निष्परिग्रहत्वमुक्तम्।" (हेम.वृत्ति / विशे.भा. / गा.२५५१-५२)। अर्थात् वस्त्रादिपरिग्रह कषाय, भय, मूर्छा आदि दोषों का जनक होने से अनर्थकारी है। इसीलिए श्रुत में वस्त्रपात्रादि-परिग्रहरहित जिनलिंग को ही ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है। इस कथन से शिवभूति अचेलक जिनलिंग के अतिरिक्त अन्य लिंगों का उपदेश देनेवाले शास्त्रों को अप्रामाणिक घोषित कर देता है, जो दिगम्बरमत की ही अभिव्यक्ति है। मुनि कल्याणविजय जी, मालवणिया जी और डॉ० सागरमल जी ने भी अपने पूर्वोद्धृत कथनों में स्वीकार किया है शिवभूति ने वस्त्र को परिग्रह मानकर मुनि के लिए अचेलकता का ही प्रतिपादन किया था। ५.३. श्वेताम्बरीय सचेल जिनकल्प का समर्थन नहीं यद्यपि शिवभूति जिनकल्प को ही ग्राह्य बतलाता है और उसे ही ग्रहण करने का संकल्प करता है,२२ तथापि जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया गया है, जिनकल्प के स्वरूप के विषय में उसकी अवधारणा अलग है। वह जिनेन्द्रलिंग के समान मुखवस्त्रिका, वस्त्रनिर्मित रजोहरण, प्रावरण (ओढ़ने की चादर या कम्बल) आदि सभी प्रकार की वस्त्रपात्रादि उपधियों से रहित सर्वथा अचेल अवस्था को जिनकल्प मानता है। यह उसके पूर्वोद्धृत "अचेलकाश्च जिनेन्द्राः। अतोऽचेलतैव सुन्दरेति" इन वचनों से सिद्ध है। इसीलिए गुरु आर्यकृष्ण उसे समझाते हैं कि "जिनेन्द्र भी सर्वथा अचेलक नहीं होते, अपितु सभी तीर्थंकर एकवस्त्र लेकर ही प्रव्रजित होते हैं, ताकि लोगों को यह २२. "नन्वहमेव तं करोमि, परलोकार्थिना स एव निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्त्तव्यः।" (हेम.वृत्ति/ विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५५१-५२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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