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३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा
तथ
असंजमो तस्स ।
परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥ ३/२१॥
अ०२ / प्र० २
अनुवाद - "कायचेष्टा से जीव के मर जाने पर मुनि को बन्ध होता है, और नहीं भी होता है । किन्तु उपधि ( परिग्रह ) रखने पर बन्ध अवश्य होता है, अतः मुनि समस्त उपधि का त्याग कर देते हैं । जो मुनि उपधि रखता है उसे मूर्च्छा, आरंभ और असंयम कैसे नहीं होंगे? तथा परद्रव्य में रत वह मुनि आत्मा को सिद्ध कैसे करेगा?"
इस तरह बोटिक शिवभूति का मत दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के मत का सर्वथा अनुगमन करता है।
शिवभूति के गुरु आर्यकृष्ण तर्क करते हैं कि यदि किसी मुनि में देह के प्रति भी कषाय, भय, मूर्च्छा आदि उत्पन्न हो जायँ, तो क्या उसे देह का भी परित्याग कर देना चाहिए? २१ पर शिवभूति गुरु के इस तर्क को महत्त्व नहीं देता, क्योंकि गुरु का तर्क उसके गले नहीं उतरता, संभवतः इस प्रतितर्क के कारण कि यदि देह में मूर्च्छा उत्पन्न होती है, तो देह का तो परित्याग नहीं किया जा सकता, किन्तु वस्त्रादि में मूर्च्छा उत्पन्न होने पर उनका तो परित्याग किया जा सकता है। अतः मूर्च्छा के जितने भी कारणों का परित्याग संभव है, उतनों का परित्याग करके मूर्च्छत्पत्ति के निमित्तों में यथाशक्ति कमी की जानी चाहिए।
५. २. जिनकल्प के नाम से एकमात्र अचेल जिनलिंग का समर्थन
५.२.१. अचेल जिनकल्प (जिनलिंग) से ही मोक्ष की प्राप्ति - शिवभूति का मत है कि निष्परिग्रह अचेल जिनकल्प (जिनलिंग) से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, अतः मोक्षार्थी को उसी का अवलम्बन करना चाहिए - " परलोकार्थिना स एव निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्त्तव्यः ।" (हेम. वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५५१-५२) । इस कथन में 'स एव' (केवल वही ) शब्दों से एकमात्र जिनकल्प अर्थात् जिनलिंग ही मोक्षार्थी के लिए ग्राह्य बतलाया गया है, जिससे अन्य समस्त कल्प अग्राह्य सिद्ध हो जाते हैं । सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, अन्यतीर्थिकमुक्ति सब का इससे निषेध हो जाता है। अतः शिवभूति का यह मत सर्वथा दिगम्बरमत है ।
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५.२.२. जिनेन्द्रगृहीत होने से अचेललिंग ही प्रामाणिक - शिवभूति यह भी कहता है कि जिनेन्द्र भी अचेलक थे, अतः अचेललिंग ही मोक्ष का प्रामाणिक मार्ग
२१. “ ततो गुरुणा प्रोक्तम् - हन्त ! यद्येवं तर्हि देहेऽपि कषायभयमूर्च्छादयो दोषाः कस्यापि सम्भवन्ति इति सोऽपि व्रतग्रहणानन्तरमेव त्यक्तव्यः प्राप्नोति ।" हेम वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५५१-५२ ।
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