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________________ अ० २ / प्र० २ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ३७ अर्थात् शिवभूति के अनुसार मूर्च्छारूप भावपरिग्रह तथा बाह्य उपधिरूप द्रव्यपरिग्रह दोनों के त्याग से अपरिग्रह घटित होता है । अपरिग्रह के इस लक्षण से कोई भी वस्त्रधारी पुरुष या स्त्री अपरिग्रही नहीं कहला सकती। अतः शिवभूति के मत में न तो असमर्थ पुरुषों के लिए मुक्ति का अवसर रहता है, न स्त्रियों के लिए, न गृहिलिंगियों के लिए और न अन्यलिंगियों के लिए। डॉ० सागरमल जी भी मानते हैं कि जहाँ अपरिग्रह की परिभाषा में भावपरिग्रह तथा द्रव्यपरिग्रह दोनों का त्याग अपेक्षित हो, वहाँ न तो आपवादिक सवस्त्रमुक्ति संभव है, न स्त्रीमुक्ति । वे दिगम्बरमत पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- " किन्तु, जब अचेलता को ही एकमात्र मोक्षमार्ग स्वीकार करके मूर्च्छादि भावपरिग्रह के साथ-साथ वस्त्रपात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्णत्याग आवश्यक मान लिया गया, तो यह स्वाभाविक ही था कि स्त्रीमुक्ति के निषेध के साथ ही साथ अन्यतैर्थिकों और गृहस्थों की मुक्ति का भी निषेध कर दिया जाय।" (जै. ध. या.स./ पृ. ३९९) । हम देखते हैं कि मोक्ष के विषय में शिवभूति का मत भी ऐसा ही है। वह श्वेताम्बर साधुओं के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले वस्त्रपात्रादि को अनर्थकारी परिग्रह कहता है तथा जिनेन्द्रों द्वारा अपनाये गये वस्त्रपात्रादिरहित सर्वथा अचेल जिनलिंगरूप जिनकल्प १९ को ही मोक्षार्थियों के लिए ग्राह्य बतलाता है । अतः शिवभूति के मत में भी स्त्रीमुक्ति आदि असंभव हैं । इस प्रकार अपरिग्रह के विषय में बोटिक शिवभूति की धारणा दिगम्बरों की धारणा का प्रतिनिधित्व करती है। ५.१.२. उपधिपरिग्रह से मूर्च्छादि अनेक दोष अवश्यंभावी - शिवभूति कहता है कि वस्त्रपात्रादि परिग्रह के सद्भाव में मूर्च्छा, भय, कषाय आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । अतः ऐसे अनर्थकारी परिग्रह से क्या फायदा? अर्थात् वह मोक्ष में सहायक न होकर संसार का कारण होने से अनर्थकारी है, अतः परित्याज्य है । २० बाह्यपरिग्रह को मूर्च्छादि दोषों का कारण मानना, अत एव उसे परित्याज्य मानना मात्र दिगम्बरमत का तर्क है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'प्रवचनसार' में कहा है 44 हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचे म्हि | बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया १९. 'परलोकार्थिना स एव निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्त्तव्यः । किं पुनरनेन कषायभयमूर्च्छादिदोषनिधिना परिग्रहानर्थेन ?" हेम. वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५५१-५२ । २०. क — देखिए, पादटिप्पणी १९ । Jain Education International सव्वं ॥ ३/१९॥ ख - " किमुपधिपरिग्रहेण ? परिग्रहसद्भावे कषायमूर्च्छाभयादिका वहवो दोषाः । " हारिभद्रीय वृत्ति / आवश्यकनिर्युक्ति / आवश्यकमूलभाष्य / गा.१४६ / पृ.२१६ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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